एकता का आधार - एकत्व


                                      सद्गुरु माता सुदीक्षा जी महाराज 


 


एकत्व एहसास है, भाव है, अवस्था है एक होने की। एकत्व वह नाता है जो सृष्टि के जड़-चेतन सभी को एक-दूसरे के साथ इस प्रकार से जोड़ता है कि भिन्नताओं अथवा दूरियों के बावजूद सभी एक हो जायें। सभी इकाईयाँ मिलकर एक इकाई का रूप ले लें।


एकत्व के लिये किसी भी इकाई को अपना रंग, रूप, नाम अथवा स्थान बदलने की आवश्यकता नहीं, यहाँ तक कि किसी के लिए शारीरिक रूप से भी एक-दूसरे के समीप आना अनिवार्य नहीं। आवश्यकता है एक सूत्र की, एक धागे की जो सभी को उसी रूप में पिरोता चला जाए जिस रूप में हर इकाई स्थित है और यह सूत्र है-निराकार प्रभु, परमात्माः                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                               


सगल समग्री तुमरे सूत्र धारी, तुम ते होइ सो आज्ञाकारी।


हे परमात्मा! यह सारी सृष्टि तुम्हारे ही सूत्र द्वारा एक हो रही है। तू ही सबका कर्ता है, रचयिता है और सभी का स्थान तुम्हारी ही आज्ञा के अनुसार तय हो रहा है, सभी तुम्हारे ही विधान के अनुसार स्थित हैं अथवा चल रहे हैं, विचरण कर रहे हैं।


परमात्मा सर्वव्यापक है। कोई स्थान इससे खाली नहीं, ‘एहो इक खला दा राजा इक सच्ची सरकार है एह’ अर्थात् जो स्थान हमें खाली दिखाई देता है वहाँ भी यह निरंकार उपस्थित है, इसी के विधान के अनुसार इसी का शासन चल रहा है। हम जिसे ‘खला’ कह रहे हैं उसी में तो सूरज खड़ा है, उसी में तो धरती चल रही है, चांद चल रहा है। अब क्योंकि परमात्मा से कोई भी स्थान खाली नहीं इसलिए कहना पड़ेगा कि सूरज, चांद, धरती इत्यादि सभी इसी निराकार प्रभु परमात्मा में ही स्थित हैं।


उदाहरण के लिए हमने एक बर्तन पानी से भर दिया। इसका अर्थ यह हुआ कि जो स्थान बर्तन के अन्दर खाली दिखाई देता था वहाँ अब पानी आ गया है। अतः अब यदि हम उसमें एक सिक्का डालेंगे तो वह बर्तन में नहीं बल्कि पानी में स्थित होगा। इसी प्रकार सृष्टि की प्रत्येक वस्तु भले ही वह जड़ हो अथवा चेतन, स्थूल हो अथवा सूक्ष्म, इसी निराकार, प्रभु, परमात्मा में स्थित है। अंग्रेज़ी भाषा वाले इस अवस्था अथवा गुण के लिए परमात्मा को प्उउंदमदज (अंतर्निहित) कहते हैं।


इसके साथ ही हम यह भी जानते हैं कि यह निराकार प्रभु परमात्मा सृष्टि के कण-कण में है, घट-घट में उपस्थित है अर्थात् कोई जड़-चेतन इससे खाली नहीं। ऐसा नहीं कि यह सूरज, चांद, धरती इत्यादि के चारों ओर तो है परन्तु इनके अन्दर नहीं। यदि सूरज परमात्मा में स्थित है और परमात्मा इसके इर्द-गिर्द स्थित है तो परमात्मा सूरज के भीतर, इसके अन्दर भी है, एक ही है, दो या तीन नहीं हो गए। इसी प्रकार चाँद हो या धरती सभी परमात्मा में स्थित है। और परमात्मा सभी में स्थित हैं। इस अवस्था के कारण अंग्रेजी भाषा में परमात्मा को ज्तंदेबमदकमदज (उत्कृष्ट)भी कहा गया है।


इस प्रकार परमात्मा एक सूत्र की भाँति सूरज चाँद सितारे, धरती, पानी, अग्नि, वायु, जीव, आकाश सभी को जोड़ रहा है, एक कर रहा है, एकत्व प्रदान कर रहा है। अब हम भली-भाँति समझ सकते है कि किसी एक मानव को एकत्व के लिए किसी दूसरे मानव के समीप जाने की आवश्यकता नहीं। अमेरिका वाला अमेरिका में रहे, जापान वाला जापान में रहे और भारत वाला भारत में। सभी को अपनी-अपनी संस्कृति, वेश-भूषा , भाषा, धर्म, जाति, रंग, नस्ल सब मुबारक हैं, वे इन विभिन्नताओं के होते हुए भी एक हैं क्योंकि इस निराकार-प्रभु-परमात्मा का सूत्र सबको जोड़ रहा है, एक कर रहा है।


अब हमने केवल इस सूत्र को जानना है और इसके अस्तित्व, इसकी हर समय, हर स्थान पर, हर परिस्थिति में उपस्थिति का एहसास करना है और यह काम है पूर्ण ब्रह्मज्ञानी का, सद्गुरु का। जब हम सद्गुरु की शरण में आते हैं तो हमें इसका बोध हो जाता है। हमें इस बात का पता चल जाता है कि यह निराकार प्रभु परमात्मा एक ही परम अस्तित्व है और हमने ही इसको अलग-अलग नामों से अपने-अपने धर्म के साथ जोड़ा हुआ है। अतः अब हम न ईश्वर के नाम पर झगड़े करते हैं और न गुरु-पीर-पैगम्बरों के नामों पर। अब हमें किसी के धर्म से घृणा नहीं होती बल्कि हम सभी से प्यार करने वाले बन जाते हैं।


हम समझ लेते हैं कि इस परमपिता-परमात्मा का अपना कोई धर्म नहीं, यह तो आत्मा के रूप में सभी प्राणियों में समान रूप से विद्यमान है। अतः हम भी प्रत्येक मानव में ईश्वर, प्रभु परमात्मा को देखते हंै। हम उसके धर्म, जाति, भाषा, प्रान्त और सभ्यता से ऊपर उठकर उसे एक ही मानव परिवार के सदस्य के रूप में गले लगाते हैं। मानव भाईचारे की भावना को दृढ़ता प्रदान करते हैं। हमें किसी प्रकार की भिन्नताएं किसी भी मानव से दूर नहीं करती। हमारे मन में सभी के प्रति प्रेम, दया, करुणा के भाव जन्म लेते हैं और हम सभी का भला मांगने वाले, सभी का भला करने वाले बन जाते हैं। ‘मानवता’ हमारा पहला धर्म बन जाता है जो हमें एकता तो प्रदान करता ही है, उसके साथ-साथ समता तथा परस्पर सम्मान भी बनाये रखता है। हमारे ऊँच-नीच, अमीर-गरीब के भाव समाप्त होने लगते हैं।


  
आज संसार धर्म के नाम पर मानव को मानव से दूर करता चला जा रहा है। घृणा के साथ-साथ हिंसा को भी फैलाव मिल रहा है। ‘दया धर्म का मूल है’ मात्र जद्घोष बनकर रह गया है। अब तो धर्म के नाम पर लूट मार करके, निर्दोष लोगों, मासूम बच्चों की हत्या करके जन्नत तथा स्वर्ग के भागीदार बनने की चेष्टा की जाती है। विश्व के किसी कोने में भी जहाँ आतंकवाद की घटनायें घट रही हैं वहाँ किसी न किसी रूप में धर्म का नाम जुड़ जाता है। आज आतंकवाद किसी देश की अपनी आंतरिक समस्या भी नहीं रहा, उसका प्रभाव विश्व-व्यापी बन गया है। जो धर्म मानव को मानव के समीप लाने वाला था, वह आज दीवारें खड़ी कर रहा है, दूरियाँ बढ़ा रहा है।


अतः इन परिस्थितियों में एकत्व का भाव जन्म ले लंे तो कितनी बड़ी क्रान्ति होगी। मानव के अन्दर मानवता के भाव आ जायेंगे। मनों में प्रेम, दया, करुणा, सहनशीलता तथा उदारता के सुन्दर भावों का संचार होने लगेगा। मानव मात्र के प्रति इससे अधिक उपकार भला और क्या होगा?


 सन्त निरंकारी मिशन मानव जगत की इस माँग को, इस आवश्यकता को अपने ही ढंग से पूरा करने का प्रयास करता आ रहा है। जबसे सन् 1929 में बाबा बूटा सिंह जी ने इसकी नींव रखी इसका समस्त मानवता के लिए यहीं संदेश रहा है कि हम किसी भी धर्म के मानने वाले हों, ईश्वर, प्रभु, परमात्मा की किसी भी नाम से किसी भी ढंग से पूजा करते हों, इसे जानकर करें। और ईश्वर का ज्ञान केवल और केवल पूर्ण सद्गुरु द्वारा ही प्राप्त हो सकता है।


जैसे-जैसे भक्त इस मिशन के साथ जुड़ते गए वे ईश्वर, प्रभु-परमात्मा यानि निरंकार के नामों से ऊपर उठकर, इसके परम अस्तित्व का ज्ञान प्राप्त करके, इस परम सत्य में स्थित होते गए। यहाँ उन्हें किसी प्रकार की पूजा अर्चना अपनाने के लिए कोई प्रेरणा नहीं दी गई परन्तु यह बात उनकी समझ में भली-भाँति आ गई कि विभिन्न धर्मस्थानों पर पूजा अर्चना किसकी हो रही है। इस प्रकार उन्हें अनेकता में एकता का अनुभव होने लगा। अलग-अलग धर्मों के मानने वालों की अलग-अलग वेश-भूषा, भाषा तथा पूजा पद्धति के रहते हुए भी वह सभी एक दिखाई देने लगे। यहीं है एकता का आधार-एकत्व।


 कृपा सागर’