महावीर जयंती की हार्दिक शुभकामनाये जाने भगवान महावीर को


पूरे भारत वर्ष मे महावीर जयंती जैन समाज द्वारा भगवान महावीर के जन्म उत्सव के रूप मे मनाई जाती है. जैन समाज द्वारा मनाए जाने वाले इस त्योहार को महावीर जयंती के साथ साथ महावीर जन्म कल्याणक नाम से भी जानते है. महावीर जयंती हर वर्ष चैत्र माह के 13 वे दिन मनाई जाती है, जो हमारे वर्किंग केलेन्डर के हिसाब से मार्च या अप्रैल मे आती है. इस दिन हर तरह के जैन दिगम्बर, श्वेताम्बर आदि एक साथ मिलकर इस उत्सव को मनाते है. भगवान महावीर के जन्म उत्सव के रूप मे मनाए जाने वाले इस त्योहार मे पूरे भारत मे सरकारी छुट्टी घोषित की गयी है.


जैन धर्म के प्रवर्तक भगवान महावीर का जीवन उनके जन्म के ढाई हजार साल भी उनके लाखों अनुयायियों के साथ ही पूरी दुनिया को अहिंसा का पाठ पढ़ा रहा है. पंचशील सिद्धान्त के प्रर्वतक और जैन धर्म के चौबिसवें तीर्थंकर महावीर स्वामी अहिंसा के प्रमुख ध्‍वजवाहकों में से एक हैं. जैन ग्रंथों के अनुसार, 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ जी के मोक्ष प्राप्ति के बाद 298 वर्ष बाद महावीर स्वामी का जन्म‍ ऐसे युग में हुआ, जहां पशु‍बलि, हिंसा और जाति-पाति के भेदभाव का अंधविश्वास था.


महावीर स्वामी के जीवन को लेकर स्वेताम्बर और दिगम्बर जैनियों मे कई तरह के अलग अलग तथ्य हैं.


भगवान महावीर का जन्म लगभग 600 वर्ष पूर्व चैत्र शुक्ल त्रयोदशी के दिन क्षत्रियकुण्ड नगर मे हुआ. भगवान महावीर की माता का नाम महारानी त्रिशला और पिता का नाम महाराज सिद्धार्थ थे. भगवान महावीर कई नामो से जाने गए उनके कुछ प्रमुख नाम वर्धमान, महावीर, सन्मति, श्रमण आदि थे. महावीर स्वामी के भाई नंदिवर्धन और बहन सुदर्शना थी. बचपन से ही महावीर तेजस्वी और साहसी थे. शिक्षा पूरी होने के बाद इनके माता—पिता ने इनका विवाह राजकुमारी यशोदा के साथ कर दिया. बाद में उन्हें एक पुत्री प्रियदर्शना की प्राप्ति हुई, जिसका विवाह जमली से हुआ.


भगवान महावीर का जन्म एक साधारण बालक के रूप मे हुआ था, इन्होने अपनी कठिन तपस्या से अपने जीवन को अनूठा बनाया. महावीर स्वामी के जीवन के हर चरण मे एक कथा व्याप्त है, हम यहा उनके जीवन से जुड़े कुछ चरणों तथा उसमे निहित कथाओ को बता रहे है.


महावीर स्वामी जन्म और नामकरण संस्कार :
महावीर स्वामी के जन्म के समय क्षत्रियकुण्ड गाव मे दस दिनो तक उत्सव मनाया गया. सारे मित्रो भाई बंधुओ को आमंत्रित किया गया, तथा उनका खूब सत्कार किया गया. राजा सिद्धार्थ का कहना था, कि जब से महावीर स्वामी का जन्म उनके परिवार मे हुआ है, तब से उनके धन धान्य कोष भंडार बल आदि सभी राजकीय साधनो मे बहुत वृध्दी हुई, तो उन्होने सबकी सहमति से अपने पुत्र का नाम वर्ध्दमान रखा.


महावीर स्वामी का विवाह:
कहा जाता है कि महावीर स्वामी अन्तर्मुखी स्वभाव के थे. शुरवात से ही उन्हे संसार के भोगो मे कोई रुचि नहीं थी, परंतु माता पिता की इच्छा के कारण उन्होने वसंतपुर के महासामन्त समरवीर की पुत्री यशोदा के साथ विवाह किया. तथा उनके साथ उनकी एक पुत्री हुई, जिसका नाम प्रियदर्शना रखा गया.


महावीर स्वामी का वैराग्य:
महावीर स्वामी के माता पिता की मृत्यु के पश्चात उनके मन मे वैराग्य लेने की इच्छा जागृत हुई, परंतु जब उन्होने इसके लिए अपने बड़े भाई से आज्ञा मांगी, तो उन्होने अपने भाई से कुछ समय रुकने का आग्रह किया. तब महावीर स्वामी जी ने अपने भाई की आज्ञा का मान रखते हुये 2 वर्ष पश्चात 30 वर्ष की आयु मे वैराग्य लिया. इतनी कम आयु में घर का त्याग कर ‘केशलोच’ के साथ जंगल में रहने लगे. वहां उन्हें 12 वर्ष के कठोर तप के बाद जम्बक में ऋजुपालिका नदी के तट पर एक साल्व वृक्ष के नीचे सच्चा ज्ञान प्राप्त हुआ. इसके बाद उन्हें ‘केवलिन’ नाम से जाना गया तथा उनके उपदेश चारों और फैलने लगे. बडे-बडे राजा महावीर स्वा‍मी के अनुयायी बने उनमें से बिम्बिसार भी एक थे. 30 वर्ष तक महावीर स्वामी ने त्याग, प्रेम और अहिंसा का संदेश फैलाया और बाद में वे जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर बनें और विश्व के श्रेष्ठ महात्माओं में शुमार हुए.


उपसर्ग, अभिग्रह, केवलज्ञान:
तीस वर्ष की आयु मे महावीर स्वामी ने पूर्ण संयम रखकर श्रमण बन गये, तथा दीक्षा लेते ही उन्हे मन पर्याय का ज्ञान हो गया. दीक्षा लेने के बाद महावीर स्वामी जी ने बहुत कठिन तापस्या की और विभिन्न कठिन उपसर्गों को समता भाव से ग्रहण किया.


साधना के बारहवे वर्ष मे महावीर स्वामी जी मेढ़िया ग्राम से कोशम्बी आए और तब उन्होने पौष कृष्णा प्रतिपदा के दिन एक बहुत ही कठिन अभिग्रह धारण किया.


इसके पश्चात साढ़े बारह वर्ष की कठिन तपस्या और साधना के बाद ऋजुबालुका नदी के किनारे महावीर स्वामी जी को शाल वृक्ष के नीचे वैशाख शुक्ल दशमी के दिन केवल ज्ञान- केवल दर्शन की उपलब्धि हुई.


महावीर और जैन धर्म


महावीर को वीर, अतिवीर और स​न्मती के नाम से भी जाना जाता है. वे महावीर स्वामी ही थे, जिनके कारण ही 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों ने एक विशाल धर्म ‘जैन धर्म’ का रूप धारण किया. भगवान महावीर के जन्म स्थान को लेकर विद्वानों में कई मत प्रचलित है, लेकिन उनके भारत में अवतरण को लेकर वे एक मत है. वे भगवान महावीर के कार्यकाल को ईराक के जराथ्रुस्ट, फिलिस्तीन के जिरेमिया, चीन के कन्फ्यूसियस तथा लाओत्से और युनान के पाइथोगोरस, प्लेटो और सुकरात के समकालीन मानते हैं. भारत वर्ष को भगवान महावीर ने गहरे तक प्रभावित किया. उनकी शिक्षाओं से तत्कालीन राजवंश खासे प्रभावित हुए और ढेरों राजाओं ने जैन धर्म को अपना राजधर्म बनाया. बिम्बसार और चंद्रगुप्त मौर्य का नाम इन राजवंशों में प्रमुखता से लिया जा सकता है, जो जैन धर्म के अनुयायी बने. भगवान महावीर ने अहिंसा को जैन धर्म का आधार बनाया. उन्होंने तत्कालीन हिन्दु समाज में व्याप्त जाति व्यवस्था का विरोध किया और सबको समान मानने पर जोर दिया. उन्होंने जियो और ​जीने दो के सिद्धान्त पर जोर दिया. सबको एक समान नजर में देखने वाले भगवान महावीर अहिंसा और अपरिग्रह के साक्षात मूर्ति थे. वे किसी को भी कोई दु:ख नहीं देना चाहते थे.


महावीर स्वामी के उपदेश :


भगवान महावीर ने अहिंसा, तप, संयम, पाच महाव्रत, पाच समिति, तीन गुप्ती, अनेकान्त, अपरिग्रह एवं आत्मवाद का संदेश दिया. महावीर स्वामी जी ने यज्ञ के नाम पर होने वाली पशु-पक्षी तथा नर की बाली का पूर्ण रूप से विरोध किया तथा सभी जाती और धर्म के लोगो को धर्म पालन का अधिकार बतलाया. महावीर स्वामी जी ने उस समय जाती-पाति और लिंग भेद को मिटाने के लिए उपदेश दिये.


निर्वाण :


कार्तिक मास की अमावस्या को रात्री के समय महावीर स्वामी निर्वाण को प्राप्त हुये, निर्वाण के समय भगवान महावीर स्वामी जी की आयु 72 वर्ष की थी.


विशेष तथ्य: भगवान महावीर


भगवान महावीर के जिओं और जीने दो के सिद्धान्त को जन—जन तक पहुंचाने के लिए जैन धर्म के अनुयायी हर वर्ष की कार्तिक पूर्णिमा को त्योहार की तरह मनाते हैं. इस अवसर पर वह दीपक प्रज्वलित करते हैं.
जैन धर्म के अनुयायियों के लिए उन्होंने पांच व्रत दिए, जिसमें अहिंसा,अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह बताया गया.
अपनी ​सभी इंन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर लेने की वजह से वे जितेन्द्रिय या ‘जिन’ कहलाए.
जिन से ही जैन धर्म को अपना नाम मिला.
जैन धर्म के गुरूओं के अनुसार भगवान महावीर के कुल 11 गणधर थे, जिनमें गौतम स्वामी पहले गणधर थे.
भगवान महावीन ने 527 ईसा पूर्व कार्तिक कृष्णा द्वितीया तिथि को अपनी देह का त्याग किया. देह त्याग के समय उनकी आयू 72 वर्ष थी.
बिहार के पावापूरी जहां उन्होंने अपनी देह को छोड़ा, जैन अनुयायियों के लिए यह पवित्र स्थल की तरह पूजित किया जाता है.
भगवान महावीर की मृत्यु के दो सौ साल बाद, जैन धर्म श्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्रदायों में बंट गया.
दिगम्बर सम्प्रदाय के जैन संत वस्त्रों का त्याग कर देते हैं, इसलिए दिगम्बर कहलाते हैं जबकि श्वेताम्बर सम्प्रदाय के संत श्वेत वस्त्र धारण करते हैं.
भगवान महावीर स्वामी जी की शिक्षाए: भगवान महावीर द्वारा दिए गए पंच​शील सिद्धान्त ही जैन धर्म का आधार बने है. इस सिद्धान्त को अपना कर ही एक अनुयायी सच्चा जैन अनुयायी बन सकता है. सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह को पंचशील कहा जाता है. ​


सत्य – भगवान महावीर ने सत्य को महान बताया है. उनके अनुसार, सत्य इस दुनिया में सबसे शक्तिशाली है और एक अच्छे इंसान को किसी भी हालत में सच का साथ नहीं छोड़ना चाहिए. एक बेहतर इंसान बनने के लिए जरूरी है कि हर परिस्थिति में सच बोला जाए.
अहिंसा – दूसरों के प्रति हिंसा की भावना नहीं रखनी चाहिए. जितना प्रेम हम खुद से करते हैं उतना ही प्रेम दूसरों से भी करें. अहिंसा का पालन करें.
अस्तेय – दूसरों की वस्तुओं को चुराना और दूसरों की चीजों की इच्छा करना महापाप है. जो मिला है उसमें ही संतुष्ट रहें.
ब्रहृमचर्य – महावीर जी के अनुसार जीवन में ब्रहमचर्य का पालन करना सबसे कठिन है, जो भी मनुष्य इसको अपने जीवन में स्थान देता है, वो मोक्ष प्राप्त करता है.
अपरिग्रह – ये दुनिया नश्वर है. चीजों के प्रति मोह ही आपके दु:खों को कारण है. सच्चे इंसान किसी भी सांसारिक चीज का मोह नहीं करते हैं.
कर्म किसी को भी नहीं छोड़ते, ऐसा समझकर कर्म बांधने से भाय रखो.
तीर्थकर स्वयं घर का त्याग कर साधू धर्म स्वीकारते है तो फिर बिना धर्म कारणि किए हमारा कल्याण केसे होगा.
भगवान ने जब इतनी उग्र तपस्या की तो हमे भी शक्ति अनुसार तपस्या करनी चाहिए.
भगवान ने सामने जाकर उपसर्ग सहे तो कम से कम हमे अपने सामने आए उपसर्गो को समता से सहन करना चाहिए.


भगवान महावीर के प्रमुख ग्यारह गणधर:


श्री इंद्र्भूती जी
श्री अग्निभूति जी
श्री वायुभूति जी
श्री व्यक्त स्वामीजी
श्री सुधर्मा स्वामीजी
श्री मंडितपुत्रजी
श्री मौर्यपुत्र जी
श्री अकम्पित जी
श्री अचलभ्राता जी
श्री मोतार्यजी
श्री प्रभासजी