डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री
कुछ महीने पहले चीन से एक वायरस चला था। उस वायरस का कोई इलाज फिलहाल नहीं है। वह वायरस चीन ने खुद प्रयोगशाला में तैयार किया था या प्राकृतिक कारणों से ही किसी वायरस में म्यूटेशन के कारण यह नया वायरस प्रकट हुआ था, इसको लेकर लंबे अरसे तक बहस चलती रहेगी, लेकिन इतना निश्चित है कि चीन में इस वायरस का पता चल जाने और अनेक चीनियों के संक्रमित हो जाने के बावजूद चीन सरकार ने इसे शेष विश्व से छिपाया। केवल छिपाया ही नहीं, यह पता चल जाने के बाद भी चीनियों को दूसरे देशों में जाने से नहीं रोका। अलबत्ता जिस डाक्टर और पत्रकार ने इस वायरस के घातक प्रभाव की सूचना दी, उसको जेल में डाल दिया। अब सूचना आ रही है कि उस डाक्टर की मौत हो गई है।
आश्चर्य की बात है कि चीन में ही पैदा होने या पैदा किए जाने के बावजूद यह वायरस वुहान शहर के अतिरिक्त चीन के किसी अन्य शहर में नहीं पहुंचा, जबकि उसी कालखंड में यह चीनी वायरस दुनिया के लगभग हर देश में पहुंच गया। इटली के बाद अमरीका इस वायरस का सबसे बड़ा शिकार हुआ है। जाहिर है जब पूरी दुनिया में यह चीनी वायरस आतंक फैला रहा है तो भारत इससे कैसे अछूता रह सकता था। भारत में इसकी दस्तक थोड़ी देर से यानी मार्च मास में ही पहुंची। तब तक दूसरे देशों में हो रहे तांडव से भारत चौकन्ना हो चुका था।
मैं जनवरी के तीसरे सप्ताह में अमरीका में था। हवाई अड्डों पर उस वक्त किसी प्रकार की जांच नहीं हो रही थी। चीन से आने वाले जहाज के यात्रियों को थोड़ा बहुत जरूर चैक किया जा रहा था, लेकिन भीड़ में वे सभी के साथ ही खड़े थे। इटली तो वायरस के कारण चीन की हो रही बदनामी को किसी प्रकार कम करने के अभियान में जुटा हुआ था, लेकिन जनवरी के अंत में जब मैं दुबई होता हुआ दिल्ली पहुंचा तब हवाई अड्डों पर चैकिंग का काम शुरू हो गया था। अलबत्ता दुबई में उस वक्त भी किसी प्रकार की जांच नहीं हो रही थी। शायद भारत सरकार की यही सतर्कता थी कि भारत में इस वायरस की रफ्तार धीमी थी, लेकिन तब तक विकसित देशों में इसका प्रकोप अपने भीषण रूप में प्रकट होने लगा था।
पहली स्टेज में यह वायरस विदेशों से आने वाले व्यक्तियों के कारण ही फैलता है, लेकिन अब तक इन विकसित देशों से लोग बहुत बड़ी संख्या में वापस देश में आने लगे थे। उनको जिस प्रकार की एहतियात रखनी चाहिए थी, उस प्रकार की उन्होंने नहीं रखी। इतना हल्ला-गुल्ला होने के बावजूद न तो वे स्वयं और न ही उनके परिवार वाले कोरोना में आइसोलेशन की महत्ता को समझ सके। इसका भी मनोवैज्ञानिक कारण है। किसी आपदा की स्थिति में जब आदमी अकेला होता है तो वह भयभीत हो जाता है, लेकिन जब वह भीड़ का हिस्सा बन जाता है तो उसका डर समाप्त हो जाता है। आखिर सभी लोग कैसे मर सकते हैं? भीड़ में रहकर सबसे पहले यह भाव पैदा हो जाता है और उसके बाद व्यक्ति न मरने वालों में स्वयं को रख कर निश्चिंत हो जाता है। भारत सरकार ने जब सभी देशों से आने वाले जहाज बंद कर दिए, बसें और रेलगाडि़यां रोक दीं, टीवी पर दुनिया भर से संक्रमित होने वालों की संख्या के भयावह आंकड़े हर क्षण आने लगे, तो लोगों को इसकी भयावहता का तो एहसास हो गया, लेकिन उसके साथ ही उन्होंने अपने आपको भीड़ का हिस्सा भी मान लिया। इतना सभी को समझ में आने लगा है कि फिलहाल इस बीमारी का इलाज घर में बैठे रहने के अतिरिक्त किसी के पास नहीं है। जिन देशों के बेहतर अस्पतालों की यशगाथा गाई जा रही है, वहां यह बीमारी सबसे ज्यादा फैली हुई है। इलाज की बारी तो बहुत बाद में आती है, वैसे भी यह उस बीमारी के इलाज की बात हो रही है जिसकी अभी कोई दवाई नहीं बनी है। इसलिए इसका असली इलाज यही है कि किसी भी तरह इसको फैलने से रोका जाए।
विकसित देश इसी में धोखा खा गए। भारत सरकार ने उनसे ही सबक लेकर सबसे पहले सोशल डिस्टेंसिंग का ही प्रयोग किया। भारत की जनता यह प्रयोग स्वेच्छा से करे, इसी कारण से इसकी शुरूआत जनता कर्फ्यू से शुरू की गई। क्योंकि जनता जिस काम को अपना मान लेती है, उसकी सफलता के लिए भी बढ़-चढ़ कर भाग लेती है। जनता कर्फ्यू ने यह सिद्ध करके भी दिखा दिया। यही कारण है कि उसके बाद इक्कीस दिन के लॉकडाउन को किसी सीमा तक आम जनता ने शासकीय आज्ञा न मानकर उसे स्वेच्छा से लगाया अनुशासन स्वीकार किया, लेकिन ऐसी आपदाओं से निपटने के लिए कोई भी सरकार फूलप्रूफ योजना नहीं बना सकती। यह संभव भी नहीं होता। लॉकडाउन के लागू हो जाने के बाद जैसे-जैसे समस्याएं सामने आ रही हैं, वैसे-वैसे उनका समाधान भी किया ही जा रहा है, लेकिन संकटकाल में भी निर्मम आलोचना के स्वर क्यों उठ रहे हैं?
मुझे लगभग बीस साल पहले का एक प्रसंग ध्यान में आ रहा है। मैं यूनान के किसी प्रोफेसर से बात कर रहा था। भारतीयों व यूनानियों के समान व्यवहार पर बात हो रही थी। उसने कहा, समान व्यवहार में एक आदत तो पक्की है। यूनानी और भारतीय दोनों ही अपने लोगों की सबसे ज्यादा आलोचना करते हैं। सामान्य काल में तो यह गुण है। शायद इसलिए भी कि दोनों देशों के लोग दार्शनिक संस्कार भूमि से जुड़े हैं, लेकिन संकट काल में यह अवगुण बन जाता है और बहुत बड़ा संकट खड़ा कर देता है।
देश के लोग तो उन डाक्टरों व अन्य कर्मियों का ताली बजा कर धन्यवाद कर रहे हैं, लेकिन कुछ लोग इसको कोरोना भगाने का असफल प्रयोग बता कर आलोचना कर रहे हैं। संकट काल में सुझाव बुरा नहीं होता, काम कर रहे व्यक्ति के पीछे-पीछे उसकी आलोचना करते रहने से उसे निरुत्साहित करना बुरा होता है। बहुत से बुद्धिजीवियों ने कहा कि लॉकडाउन क्यों किया, यह पहले कर देना चाहिए था, अब करने से क्या होगा? वे सैकड़ों प्रश्न पूछने में समय लगा रहे हैं। कुछ मित्र इसी बात पर दुखी थे कि ताजी सब्जी कैसे मिलेगी, कर्फ्यू लग गया है। उन्हें ध्यान रखना चाहिए, यदि लॉकडाउन या कर्फ्यू न लगे तो इस बात की भी संभावना बन जाएगी कि आगे से सब्जी खाने वाला भी होगा या नहीं। संकट काल में हमारा आचरण भी संकट काल जैसा ही होना चाहिए। चीन भी शायद दुनिया भर में यही परखना चाहता होगा। कम से कम हम भारतीय तो सही आचरण करें।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार है)