गांव के बुजुर्ग दीनदयाल जी का सुबह-सुबह अचानक निधन हो गया। पूरा परिवार शोक में डूब गया। सूचना आग की तरह फैली और गांव के लोग दीनदयाल जी के अंतिम दर्शन के लिए उमड़ पड़े। दिन भर लोगों का तांता लगा रहा। मगर एक परिवार नहीं आया, तो नहीं आया। वह था, दीनदयालजी के छोटे भाई और उनके परिवारजनों का। वह परिवार दीनदयालजी के कड़े व्यवहार से और कभी-कभी भला-बुरा कह देने से बहुत दुखी और नाराज रहता था।
रात को अर्थी उठी और छोटे भाई की अनुपस्थिति में ही दाह-संस्कार का कार्य सम्पन्न हुआ।
अगले दिन दीनदयाल जी का छोटा बेटा चाचा और उनके परिवारजनों के न आने से बड़ा दुखी और विचलित था। उससे लगता, चाचा ही अब उनका सहारा हैं। वे इस तरह मुंह फेरे रहेंगे तो आगे कैसे काम चलेगा।
उसने चाचा को फोन लगाया और भर्राए स्वर में कहा, ''चाचा, कल जब पापा की चिता जल रही थी तो मैंने देखा, कुछ चिंगारियां उठ रहीं थीं। निस्संदेह वह पापा की वे कमियां थीं जो उनके नश्वर शरीर के साथ भस्म हो रहीं थी। चाचा, मुझे लगता है आग बुझते ही पापा के शरीर के साथ उनकी सारी बुराइयां भी खत्म हो गई हैं। हमने उनकी एक साफ-सुथरी तस्वीर आंगन में एक आसन पर रखी है। अब तो सब भूलकर दो फूल चढ़ाने आ जाओ।''
उधर से चाचा की सिसकियां सुनाई दे रही थीं।
ज्ञानदेव मुकेश