सिद्धांतहीन राजनीति


अभी तो चुनावी तारीखों की घोषणा हुई है। अभी तो हिंदुस्तान के लोकतंत्र का इतिहास यह बताता है कि फसली बटेरों के लिए यह बहुत ही लाभदायक और भविष्य बनाने वाला मौसम है। वैसे भी 50 वर्ष तक किसी राजनीतिक दल का कार्यकर्ता के रूप में सेवा करने के पश्चात भी जो लाभ और सुख सुविधाएं प्राप्त नहीं होती वह एक बार सिद्धांतहीन राजनीति का दामन पकड़ लेने से सहज प्राप्त हो जाती हैं। लालू प्रसाद यादव के लिए मेरे मन में जो भी भाव हो, पर उनका एक वाक्य बहुत अच्छा लगता है। जब उन्होंने यह कहा था कि रामविलास पासवान से बड़ा मौसम विज्ञानी कोई नहीं, क्योंकि जिधर का वह रुख कर लेते हैं, उससे सीधा संकेत मिल जाता है कि भावी सरकार उनकी ही बनने वाली है वैसे दल-बदल की बीमारी, बुराई अथवा मौकापरस्ती पूरे देश में थोड़े बहुत अंतर से विद्यमान है। कुछ वर्ष पूर्व तक हरियाणा का ही आया राम गया राम बहुत प्रसिद्ध था, पर अब चुनावों से पहले गली-गली से दल बदलने के समाचार मिलते रहते हैं। यह कहना तो अनावश्यक है कि पानी का बहाव किस ओर होता है। जिस दल के सत्तापति बनने के अधिक अवसर रहते हैं उसी ओर इन सहायक चुनावी नदी-नालों का झुकाव बहाव तेजी से चलता है। पांच साल की सत्ता भोगते हुए जो दल बदलू अपनी वर्तमान पार्टी अथवा पद से असंतुष्ट रहते हैं, चुनावों के निकट उनकी आत्मा कुछ ज्यादा जाग जाती है और वे जोर-शोर से कहते हैं कि वर्तमान पार्टी में उन्हें घुटन महसूस हो रही है, आंतरिक लोकतंत्र की कमी है, वरिष्ठ नेता उनकी अनदेखी करते हैं, इसलिए मजबूर होकर वे दल बदल रहे हैं। अगर उनमें थोड़ा सा भी नैतिक बल होता तो वो यह कहते कि दल छोड़ रहे हैं, पर दलों की दलदल में जीने और सत्ता सुख बंटोरने की जो आदत पड़ जाती है, उसके कारण वे अपना भविष्य किसी दूसरे दल में देखते हैंवैसे वे देखें भी क्यों न, उन्हें अपना ही नहीं अपनी अगली पीढ़ियों का भी भविष्य सुनहरा दिखाई देता है। लोक चर्चा अथवा जन निंदा की उन्हें परवाह नहीं। प्रसिद्ध कहावत है- ताकत वाले की पीठ काली होती है और कमजोर का मुंह। दल बदलकर जब कोई मंत्री बन जाता है अथवा राज्यपाल बनकर राज्य भवनों की शोभा बढ़ाता नहीं, बनता है अथवा अन्य राज्य पद प्राप्त कर बढ़िया कार में हूटर बजाते हुए सरकारी सलामी लेते हैं तब आम आदमी की जुर्रत ही नहीं रहती कि वह उन्हें याद करवा सके कि उनका दल तो बदला दिल कैसे बदल गया। ताजे-ताजे दो समाचार हैं। दल बदली के धंधे की बल्ले-बल्ले है उड़ीसा के बीजू जनता दल के सांसद रहे बैजयंत जय पांडा का दल बदलना कुछ खास ही रहा। सत्ता दल में शामिल होने के कुछ ही घंटों में उन्हें राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और राष्ट्रीय प्रवक्ता जैसी दो बड़ी जिम्मेवारियों से एक साथ नवाजा गया। ऐसे में पांडा और उनके समर्थक वैसे दल-बदल की बीमारी, बुराई अथवा मौकापरस्ती अंतर से विद्यमान है। कुछ वर्ष पूर्व तक राम बहुत प्रसिद्ध था, पर अब चुनावों से पहले वाली-खुशी से फूले नहीं समा रहे। खुश हो भी क्यों न बीजद में वर्षों तक रहने के बाद भी वह केवल सांसद ही बने। क्या अंतर पड़ता है अगर आत्मा या ईश्वर या संविधान के नाम पर शपथ ले चुके हैं। नए पद पर नई शपथ लेने में उन्हें कोई रोकेगा। जो आत्मा उचित, अनुचित विवेक देती है वह तो लालच के नीचे बुरी तरह दब चुकी होती है। दूसरा उदाहरण गुजरात से मिला है गुजरात के मुख्यमंत्री श्री विजय रूपाणी ने अपनी कैबिनेट का विस्तार किया। सभी हैरान रह गए यह देखकर कि कांग्रेस से दल बदली करके सत्ता पक्ष में आए जवाहर चावड़ा भी मंत्री बन गए। इसके साथ ही जामनगर पश्चिमी से कांग्रेस से दल बदली करके आए एक और विधायक जड़ेजा को भी कैबिनेट में शामिल कर लिया गया। दल बदली में गुजरात और उत्तर प्रदेश सबसे आगे निकल रहे दिखाई दे रहे हैं। गुजरात के चार विधायक कांग्रेस छोड़ गए और उत्तर प्रदेश में तो एसपी, बीएसपी तथा कांग्रेस सभी में दिल बदलने के नाम पर दल बदले जा रहे हैं। एक दो नहीं अनेक। जहां तक मैं जानता हूँ दल बदलते ही कांग्रेस विधायक को अपने पहले पद से इस्तीफा देना पड़ता है निश्चित ही उन्होंने दिया होगा, जिसकी जानकारी अभी नहीं मिली, पर नियमानुसार उन्हें पुनः चुनाव तो लड़ना ही पड़ेगा।
नोटा भी प्रभावशाली नहीं। ऐसा लगता है कि सरकारें नोटा का प्रावधान देकर निश्चित ही पछता रही होंगी। जब तक यह तय नहीं होता कि एक निश्चित मात्रा में मतदाता अगर नोटा को अपनाता है तो जीतने वालों पर उसका क्या असर पड़ेगा तब तक नोटा एक भुलेखा है, बुरा स्वप्न है। अच्छा है देश की जनता यह तय करे कि दल बदलुओं को कैसा पाठ पढ़ाया जाए, जिससे वे जनता के साथ धोखा न कर पाएं



राज कुमार सलूजा