सत्संग से हमें आध्यात्मिक खुराक मिलेगी और यहां पर सत्संग हमारे लिये वही साधन बनता हैजिसके कारण हमारे मन को, हमारे जीवन को एक ऐसी मजबूती और निखार प्राप्त होता है। दुनिया पदार्थ जो हम उसका जायका लेते हैं तो बार-बार उसी स्थान पर जाने का मन करता है क्योंकि हमें वो पदार्थ अच्छा भी लगता है और साथ में वो खुराक का रूप बनता है लेकिन महापुरुषभक्तजन आध्यात्मिक पहलू को भी कभी अनदेखा नहीं करते। ये जो असल खुराक है, जो केवल शरीरों तक सीमित नहीं है। जैसे महापुरुषों ने कहा है कि जो हंस मोती चुगे कंकर । क्यों पतियाये' कि जो हंस होता है वो । मोती रूपी खुराक लेता है वो कंकड़ का सेवन क्यों करेगा। वो कंकड़ के ऊपर फिदा नहीं होता है। वो जानता है कि मोती का मूल्य है और हंस की खुराक मोती है। बगुले के लिये कुछ भी हो लेकिन । हंस की खुराक मोती ही हुआ करती है क्योंकि उसकी वो कीमत जानता है, उसके कदम उसी ओर बढ़ेंगे, उसकी चोंच उधर ही बढ़ेगी। तो इस प्रकार से ये संत महात्मा, भक्तजन बार-बार हमारा ध्यान इस ओर लाते हैं हमारे जेहन में, दिलोदिमाग में ये बात भरने की कोशिश करते । हैं कि हम भी ग्राहक बनें, हम भी सेवन । करें जिसके कारण लोक और परलोक यशमय होता है, मंगलमय होता है हमारे । लिए। इस प्रकार से हमारी रुचि, हमारा ध्यान इस ओर हो, हमारे कदम इस ओर बढ़े, ख्याल बार-बार इसी का आए, ध्यान जाए तो इसी की तरफ जाए, परमार्थ की तरफ लेकिन संसार में विचरण करते हुए अक्सर मोती पड़ा रह जाता है और ध्यान कंकड़ की तरफ ही जाता है, वही रुचियां हमारी प्रबल रहती हैं। जो पहलू हानिकारक हैं वही प्रबल रहते करते हैं हमारे जेहन हमारे दिमाग, हमारी चाल के ऊपर। हमारा आध्यात्मिक पहलू वो तो नीचे दब के रह जायेगा और फिर सामने तो फिर वहीं कुछ दिखाई देता है जिसने डोमिनेट किया है। जिसको हमने चारों तरफ लपेट रखा है। इसलिये महापुरुष, भक्त जन बार-बार हमारा ध्यान इस ओर अग्रसर करते हैं कि हम क्यों न इसको अपनाएं जो हमारे अंदर भी उज्ज्वल रखे और हमारा बाहर भी उज्ज्वल ही सामने आए। इस तरह से हम उन वचनों को अपनाएं उस के अंतर्गत अपने ख्यालों को बनायें। उसी के अंतर्गत हमारी वाणी हो। उसी के अंतर्गत हमारी चाल हो, उसी आध्यात्मिकता के अंदर। । भक्ति निश्छल एवं निष्काम भाव से की जाती है। भक्तजन ज्ञान और मानवीय मूल्यों पर आधारित जज्बे के कारण समाज कल्याण के लिए भी योगदान देते हैं जिससे औरों को भी प्रेरणाएं मिलती हैं। उनके मन में कोई खुदगर्जी नहीं होती है, कोई अहम का भाव नहीं होता है, एहसान जताने का भाव नहीं होता। बस एक अपनत्व (अपनेपन) का भाव होता है
भक्ति निश्छल एवं निष्काम भाव से की जाती है