विचारों का अथाह सागर थे स्वामी विवेकानंद


प्रतिवर्ष 12 जनवरी को मेरा विचार एक अलग ही दुनिया में गोते लगाने लगता है। भारत वर्ष के सबसे युवा और देश प्रेम से ओत प्रोत आदर्श पुत्र स्वामी विवेकानंद को स्मरण कर ऐसा प्रतीत होता है मानो हम विचारों के अथाह सागर में डुबते चले जा रहे हो। जहां एक विचार समाप्त नहीं हो पाता वहां दूसरा हमारे मन मस्तिष्क पर कुलांचे मारने लगता है। प्राचीन भारत से लेकर आज के वर्तमान भारतवर्ष में यदि किसी शख्स ने भारतीय युवाओं को सबसे ज्यादा प्रभावित किया है तो वे स्वामी विवेकानंद ही है। हिंदूस्तान में कोई ऐसा युवा नहीं मिलेगा जो स्वामी विवेकानंद को अपना आदर्श मानने से मना कर सके। ऐसा कौन सा चरित्र स्वामी जी की प्रसिद्ध का कारण था, जिसने एक-एक युवा के हृदय में जगह बना ली। जहां तक मैंने समझा है, स्वामी विवेकानंद के विचारों में निष्कपटता, शुद्धता, देश प्रेम और हिंदू धर्म के प्रति समर्पण भाव ने ही उन्हें साधारण नरेन्द्र देव से स्वामी विवेकानंद की अविस्मरणीय यात्रा कर दी। हमें गर्व है कि ऐसा सपूत हिंदूस्तान की धरा पर अवतरित हुआ, और एक अलग इतिहास रचते हुए विवेकानंद आश्रम की स्थापना तक लोगों के दिलों में राज करने का अधिकार पा लिया। भारत भूमि पर संतों और महंतों की कमी न तो पहले थी, और न ही आज है, किंतु जो बात और जो निश्छलता स्वामी विवेकानंद की हृदय में बसती थी वह आज के संतों को छू भी नहीं पायी है।


मन में हो स्वामी जी के विचार, तो असफलता छू नहीं सकती
स्वामी विवेकानंद एक ऐसा निर्मल व्यक्तित्व है, जो प्रत्येक युवा के लिए आदर्श बना हुआ है। स्वामी जी की कही एक भी बात पर यदि आज का युवक अमल कर ले तो शायद उसे जीवन में कभी असफलता अथवा निराशा का मुंह न देखना पड़े। उनके एक एक प्रसंग प्रेरणा बनकर हमारा जीवन बदल सकते है। स्वामी जी कहा करते थे कि अपने ध्यान केवल लक्ष्य पर लगाओ, दुनिया क्या सोचती है और क्या कहती है, उस पर चिंतित न हो। इस परिप्रेक्ष्य में मुझे स्वामी जी का ग्रंथ अध्ययन करते हुए एक प्रेरक प्रसंग अपने ओर आकर्षित कर रहा है। बात उन दिनों की है जब स्वामी जी अमेरिका भ्रमण में थे। एक दिन उन्होंने भ्रमण के दौरान कुछ लड़कों को नदी पुल पर खड़े किसी चीज पर निशाना लगाते देखा। उन्होंने देखा उन लड़कों का निशाना सही नहीं लग रहा है। वे पानी में तैर रहे अंडों पर बंदूक से निशाना लगा रहे थे। तब स्वामी जी ने एक लड़के से बंदूक ली और खुद निशाना लगाने लगे। स्वामी जी ने कुल 12 निशाने लगाये, और सभी लक्ष्य भेदी निकले। सटीक निशानों को देख लड़कों के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। आखिरकार उन्होंने स्वामी जी से पूछ ही लिया कि आपने ऐसा कैसे किया? स्वामी जी ने अपनी मंद मुस्कुराहट के साथ कहा इस धरती पर असंभव कुछ भी नहीं। आप जो भी कर रहे तो, या करने जा रहे हो, अपना पूरा ध्यान उसी पर केंद्रित रखे। तुम कभी भी असफल नहीं हो सकते। यदि आप अपना पाठ्यक्रम लेकर बैठे हो तो पूरा ध्यान पाठ पर ही लगाये, सफलता तुम्हारी कदमों में खड़ी होगी।


सत्य के मार्ग से कभी न भागे
इस बात का प्रमाण देने की शायद जरूरत नहीं है कि स्वामी विवेकानंद प्रारंभ से ही मेधावी थे। उनके व्यक्तित्व और वाणी से पूरा विश्व प्रभावित था। अपने छात्र जीवन में जब छात्र नरेन्द्र अपने साथियों से बात किया करते थे, तब सभी साथी उन्हें मंत्रमुग्ध होकर सुना करते थे। एक ऐसा ही वाक्या उन दिनों का है, जब वे अपनी कक्षा में मित्रों को कहानी सुना रहे थे। सभी कहानी सुनने में इतने मग्र हो गये, कि उन्हें पता ही नहीं चला कि कब शिक्षक कक्षा में आये और उन्होंने अध्यापन शुरू कर दिया। पढ़ाई के दौरान कक्षा में हो रही फुसफुसाहट शिक्षक को परेशान कर गयी थी। अँततः शिक्षक ने कड़ी आवाज में अपनी प्रशासनिक क्षमता का प्रदर्शन कर पूछा कौन बातें कर रहा है? ऐसा छात्र जो स्वामी जी और उनके मित्रों में शामिल नहीं थे, उन्होंने स्वामीजी की ओर इशाराकर दिया। शिक्षक का क्रोध फुट पड़ा और उन्होंने उनके छात्रों से पढ़ाये जा रहे पाठ से संबंधित प्रश्न पूछ बैठे। जवाब न देने वाले उन्हें दंडित किया जाने लगा। शिक्षक महोदय ने स्वामी जी से भी प्रश्न किया, किंतु उन्होंने सारे प्रश्नों के सही जवाब दे दिये। इस पर अन्य छात्रों को खड़े रहने की सजा दी गई और स्वामी जी को आदर के साथ बैठने कहा गया। इस पर छात्र नरेन्द्र ने सत्यता को ग्रहण करने का जो उदाहरण प्रस्तुत किया, उससे खुद शिक्षक भी प्रभावित हुए बिना न रह सके। छात्र नरेन्द्र ने कहा कि आचार्य जी सजा का भागीदार मैं भी हूं। कारण यह कि इन सारे लोगों को मैं ही कहानी सुना रहा था। उनकी इस तरह से गलती स्वीकार करने पर पूरी कक्षा सहित शिक्षक महोदय ने भी सत्यता की कसौटी की दाद दी।


रोम-रोम दया एवं करूणा से ओत-प्रोत
स्वामी विवेकानंद यूं ही अखंड विश्व में एक वैचारिक संत के रूप में स्थापित नहीं हुए। उनके विचारों में ऐसा कुछ था जो दया और करूणा भाव को उनके प्रत्येक प्रसंग के साथ मिल के पत्थर की तरह मजबूती दे जाता था। स्वामी जी के करूणा भाव का एक अभुतपूर्व दृश्य अमेरिका भ्रमण के दौरान ही सामने आया। ग्रंथों में उल्लेखीत प्रसंगों में यह बात स्पष्ट रूप से सामने आयी। अपने भ्रमण काल और भाषणों की श्रृंखला से थके हारे निवास में लौटे स्वामी जी का उक्त स्वरूप उनके रोम रोम में दया भाव को प्रकट करता है। उन दिनों वे अमेरिका में एक महिला के मेहमान थे। वे अपना भोजन भी खुद ही बनाया करते थे। एक दिन वे भोजन की तैयारी में लगे थे कि कुछ बच्चे उनके पास इकऋे हो गये। बच्चों का ध्यान स्वामी जी द्वारा बनायी गयी रोटियों पर अटका हुआ था। इस बात का भान होते ही स्वामी जी ने सारी रोटियां बच्चों में बांट दी। जिस महिला के घर पर स्वामी जी मेहमान थे, उससे न रहा गया और उसने स्वामी जी से पूछ लिया, अब आप क्या खायेंगें? प्रश्न के साथ ही स्वामी जी के अधरों पर मुस्कान नाचने लगी। उन्होंने उसी प्रसन्नता के उमंग में कहा-मां, रोटी तो पेट की ज्वाला है, शांत करने वाली वस्तु है, इस पेट में न सही उस पेट में सही। देने का आनंद पाने के आनंद से बड़ा होता है। अमेरिकन महिला किंकर्तत्वविमूढ थी।


चतुरता से करते थे राष्ट्र की रक्षा
स्वामी विवेकानंद की चतुरता के अनेक प्रसंग ग्रंथों में भरे पड़े है। वे कभी भी भारत वर्ष अथवा भारत माता को अपमानित करने वालों को ऐसे ही नहीं छोड़ा करते थे। उनके जवाब देने का अंदाज भी बड़ा लहजापूर्ण हुआ करता था, जो बड़बोलो का पानी उतारते हुए उन्हें लज्जित कर देता था। एक बार अंग्रेजों ने उन्हें नीचा दिखाने के उद्देश्य से भारतीय लोगों की एकता पर प्रश्न कर दिया। भारत में हर रंग के लोग पाये जाते है-यथा काले, गोरे, भुरे, लाल फिर भी आप सब में एकता है। स्वामी जी ने जवाब दिया-ृघोड़े कितने रंग के होते है, काले, सफेद, भुरे, हर रंग के फिर भी सब साथ रहते है। इसके विपरीत गधे केवल एक रंग के होते है, फिर भी सब अलग अलग रहते है। स्वामी विवेकानंद ने अंग्रेजों को गधा नहीं कहा, लेकिन बात उन तक पहुंच गयी थी। स्वामी जी कहा करते थे कि देश के युवाओं को सबसे अधिक किसी चीज की जरूरत है तो वह है लोहे की मांसपेशियां और स्टील की नव्र्स। ऐसी प्रचंड इच्छा शक्ति युवाओं में होनी चाहिए, जिसका अवरोध दुनिया की कोई ताकत न कर सके। फिर चाहे समुद्र की अथाह गहराई, में ही क्यों न उतरना पड़े या फिर साक्षात मृत्यु का ही सामना क्यों न करना पड़े।


-डा. सूर्यकांत मिश्रा-