बिहार का लालू-नीतीश गठजोड़ भी अपराजेय नहीं था, हालांकि नीतीश कुमार के नेतृत्व के कारण वह काफी सशक्त था, क्योंकि मुख्यमंत्री के रूप में नीतीश कुमार ने समाज की वंचित जातियों के सशक्तिकरण के लिए बहुत कुछ किया था। वे वंचित जातियां लालू विरोधी थीं, लेकिन नीतीश के नेतृत्व के कारण वे राजद का समर्थन करने के लिए भी झिझक के साथ तैयार थीं। उसके बावजूद वहां टक्कर मुकाबले का था, पर आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने आरक्षण की समीक्षा का बयान देकर वहां भाजपा का बेड़ा गर्क कर दिया था। उसका इस्तेमाल कर लालू यादव बिहार की बैकवार्ड फ ॉरवर्ड राजनीति को जिंदा करने में सफ ल हुए थे और नीतीश के नेतृत्व वाले कथित महागठबंधन की जबर्दस्त जीत हुई थी।
मायावती और अखिलेश यादव का गठजोड़ आखिर हो ही गया। 2017 के विधानसभा चुनावों में मिली करारी हार के बाद यह होना ही था। जिस तरह 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव के पहले लालू यादव और नीतीश कुमार का गठजोड़ अपनी अपनी राजनीति बचाने के लिए हुआ था, उसी तरह उत्तर प्रदेश में मायावती और अखिलेश अपनी अपनी राजनीति बचाने के लिए एक हुए हैं। नीतीश और लालू का गठजोड़ सफ ल रहा। नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री एक बार और बने। राजनैतिक रूप से बिहार में अप्रासंगिक हो रहे लालू यादव ने अपने बेटे तेजस्वी को बिहार की राजनीति में नीतीश की सहायता से स्थापित कर दिया। सवाल उठता है कि क्या उत्तर प्रदेश में भी माया और अखिलेश का यह गठजोड़ बिहार के लालू-नीतीश के गठजोड़ की तरह सफल हो पाएगा?
इस सवाल का जवाब देने के लिए यह बताना जरूरी है कि उत्तर प्रदेश का गठजोड़ अभी लोकसभा चुनाव का सामना करने वाला है, जबकि बिहार का वह गठजोड़ विधानसभा चुनाव का सामना कर रहा था और बिहार के गठजोड़ के नेता नीतीश कुमार थे, जबकि उत्तर प्रदेश के वर्तमान गठजोड़ा का नेता कोई नहीं है। अखिलेश माया के पिछलग्गू की भूमिका में अवश्य दिखाई दे रहे हैं, लेकिन वे मायावती को अपना नेता मानने की हिम्मत नहीं कर सकते, क्योंकि इसके कारण उनके पिता मुलायम की तौहीन होगी और इसका खामियाजा उनकी पार्टी और गठबंधन को मतदान के समय उठाना पड़ सकता है।
बिहार का लालू- नीतीश गठजोड़ भी अपराजेय नहीं था, हालांकि नीतीश कुमार के नेतृत्व के कारण वह काफी सशक्त था, क्योंकि मुख्यमंत्री के रूप में नीतीश कुमार ने समाज की वंचित जातियों के सशक्तिकरण के लिए बहुत कुछ किया था। वे वंचित जातियां लालू विरोधी थीं, लेकिन नीतीश के नेतृत्व के कारण वे राजद का समर्थन करने के लिए भी झिझक के साथ तैयार थीं। उसके बावजूद वहां टक्कर मुकाबले का था, पर आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने आरक्षण की समीक्षा का बयान देकर वहां भाजपा का बेड़ा गर्क कर दिया था। उसका इस्तेमाल कर लालू यादव बिहार की बैकवार्ड फ ॉरवर्ड राजनीति को जिंदा करने में सफ ल हुए थे और नीतीश के नेतृत्व वाले कथित महागठबंधन की जबर्दस्त जीत हुई थी।
लेकिन उत्तर प्रदेश में वे स्थितियां मौजूद नहीं हैं। सच कहा जाय, तो 1993 की वे परिस्थितियां भी मौजूद नहीं हैं, जिनमें मुलायम के नेतृत्व वाली समाजवादी पार्टी और कांशीराम के नेतृत्व वाली बहुजन समाज पार्टी का गठबंधन हुआ था। वह दलित पिछड़ा गठजोड़ था, जबकि 2019 का अखिलेश-माया गठजोड़ दो जातियों (यादव और जाटव) का गठजोड़ है। यादव वहां की जनसंख्या का 8 फीसदी हैं, जबकि जाटव वहां की आबादी का 12 फीसदी है। इस गठजोड़ का कोई वैचारिक आधार नहीं है, बल्कि यह विशुद्ध जातिवादी गठजोड़ है। वीपी सिंह द्वारा शुरू की गई मंडल की राजनीति के कारण उत्तर प्रदेश में यादव और जाटव का सशक्तिकरण हुआ। अन्य वंचित जातियों के समर्थन के कारण इन्हें सत्ता मिली और सत्ता पाकर इन दोनों ने वंचित जातियों को ही प्रताड़ित किया, जबकि वे सवर्णों के खिलाफ लड़ाई का बिगुल बजा रहे थे। वंचित जातियों के लोगो ने जब मायावती को 2007 में समर्थन किया, तो उनकी सरकार पूर्ण बहुमत से बन गई। लेकिन बहुत जल्द मायावती अपने जातिवादी रूप में आ गईं और फिर उन्हीं के साथ मिलकर सत्ता की भागीदारी करने लगीं, जिनके खिलाफ अभियान चलाकर वह उस मुकाम पर पहुंची थी।
वंचित जातियों का उनसे मोह भंग हुआ और वे 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की ओर मुड़े। कांग्रेस को 22 सीटें मिल गईं। वह उत्तर प्रदेश में फिर से जिंदा होती दिखाई पड़ी, लेकिन उत्तर प्रदेश में अपनी सफलता का वह सही तरीके से विश्लेषण नहीं कर सकी और फिर 2012 में प्रदेश की वंचित जातियां मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी की ओर बढ़ी। उसका सबसे बड़ा कारण कांग्रेस का 27 फीसदी ओबीसी आरक्षण का हिन्दू और गैर हिन्दू नाम के दो हिस्सों में बांटना था। ऐसा मुसलमानों को तुष्ट करने के लिए किया गया था, लेकिन वंचित ओबीसी जातियों ने इसके कारण कांग्रेस को फिर नकार दिया, जिसका फायदा समाजवादी पार्टी को हुआ।
लेकिन सत्ता में आने के बाद अखिलेश ने उसी ढर्रे पर सरकार चलाना शुरू कर दिया, जिस ढर्रे पर सरकार चलाते हुए मायावती सत्ता से बाहर हो गईं थी। वचितों का अखिलेश से भ मोहभंग हुआ और वे नरेन्द्र मोदी की ओर बढ़े। उसके कारण उत्तर प्रदेश में समाप्ति की ओर बढ़ रही भाजपा में जान आ गई और लोकसभा चुनाव मे मोदी के 73 उम्मीदवार चुनाव जीत गए। वंचितों साथ साथ भाजपा के पक्ष में सवर्ण मतदाता भी लामबंद थे और दोनों के सम्मिलित प्रभाव से भाजपा ने 2017 के विधानसभा चुनाव में भी अपनी 2014 वाली सफलता दुहरा दी।
अब 2019 के चुनाव में वीपी सिंह के मंडल के कारण सशक्त हुई एक ओबीसी और एक दलित जाति का गठबंधन हो गया है। उनके साथ मुस्लिम गठजोड़ की उम्मीद की जा रही है। तीनों की आबादी को मिला दिया जाय, तो वे उत्तर प्रदेश की आबादी के 40 फीसदी होते हैं। यदि उनकी 75 फीसदी भी मुस्लिम-यादव-जाटव गठबंधन को मिला, तो यह गठबंधन 30 फीसदी से ज्यादा मत पाएगा। सवाल उठता है कि इतने मत से यह गठबंधन कितनी सीटें जीत पाएगा?
उत्तर प्रदेश में अब सीधा मुकाबला नहीं होने जा रहा। कांग्रेस के नेतृत्व मे भी एक मोर्चा बनेगा और संघर्ष तीन मोर्चो के बीच होगा। इस संघर्ष में किसका पलड़ा भारी रहता है, इसका निर्णय वंचित जातियों के वोटिंग पैटर्न से होगा। वे वंचित जातियां ज्यादातर ओबीसी हैं और कुछ दलित भी है। उनकी कुल संख्या 40 फीसदी है, जो मुस्लिम-यादव-जाटव की 40 फीसदी के बराबर है। शेष आबादी हिन्दू सवर्णो की है, जो वहां करीब 20 फीसदी हैं। वे आमतौर पर भाजपा समर्थक हैं। दूसरी तरफ कांग्रेसी मोर्चा भी अपने लिए जगह बनाने की कोशिश करेगा। इन तीनों मोर्चे में कौन कितनी सीटें जीतेगा, इसका निर्णय अंततः 40 फीसदी आबादी वाली वंचित ओबीसी और दलित जातियों के लोग ही करेंगे। अतीत में वे सपा, बसपा, भाजपा और कांग्रेस को अलग अलग चुनावों में मत दे चुके हैं। इस बार देखना दिलचस्प होगा कि उनकी 40 फीसदी आबादी का बहुमत किधर मुड़ता है।
-उपेन्द्र प्रसाद-