मेरे गणतंत्र में परसाई


मन से कहूं तो तंत्र का जंग लगा हिस्सा होने के चलते मेरा गणतंत्र दिवस या पंद्रह अगस्त से कोई ज्यादा लेना देना नहीं । मुझे इन राष्ट्रीय किस्म के निर्वाही पर्वों से लेना देना है तो बस , इतना की कि इस दिन सरकार हम जैसों के लिए डीए की किस्त और अन्य सुविधाओं की घोषणा करती है ताकि गण प्रसन्न रहें या न पर उसका तंत्र तो उससे प्रसन्न रहे। और मेरे जैसा जीव अब डीए की किस्त और सरकार से मिलने वाली वांछित कम अवांछित सुविधाओं का होकर रह गया है।


इसलिए इन दो दिनों न चाहते हुए भी वहां वक्त से पहले जा पहुंचता हूं ,यह सुनने के लिए कि सरकार कितनी डीए की किस्त समेत अन्य सुविधाओं की घोषणा अपने मस्ती करने वाले तंत्रियों को करने वाली है। इधर सरकार ने डीए की किस्त सहित अन्य सुविधाओं की घोषणा कि और उधर कुढ़ते फुड़ते, मुस्कुराते, गुनगुनाते घर को हो लिए, दुम दबाए या दुम नचाए।


सच पूछो तो मेरी राष्ट्रीय भावना अब कहीं जो राष्ट्रगान हो रहा हो तो आधा अधूरा राष्ट्रगान इस कान सुनते, उस कान निकालने तक सीमित हो गई है। घर की चिल्ल-पों सुनते सुनते अब कान इतने बहरे हो गए हैं कि जो घर की बातें ही नहीं सुन पाते, वे राष्ट्रगान क्या सुनेंगे, क्यों सुनेंगे? ऐसे में धन्य हैं वे जो आज भी राष्ट्रीयता के दुर्दिनों में अपनी राष्ट्रीयता की साख को बचाए हुए हैं। राष्ट्रीयता को ठेले में सजाए पूरे देश में नचाए हुए हैं।


इधर अबके फिर ज्यों ही गणतंत्र दिवस आया तो मन सर्दियां होने के बाद भी प्रसन्न हुआ। पंद्रह अगस्त के बाद से ही इस कंबख्त गणतंत्र दिवस का इंतजार था। बड़ी देर कर दी हे गणतंत्र दिवस तूने आते आते। असल में पंद्रह अगस्त को जो सरकार ने अन्य सुविधाओं को दर किनार करते केवल डीए की किस्त की घोषणा की थी वह महंगाई क मुंह में जीरे जैसी थी। मजा ही नहीं आया था उस डीए की किस्त का।


उम्मीद थी कि चुनाव सिर अपने सिर पर होने के चलते सरकार भरपूर डीए की किस्त तो देगी ही साथ ही साथ इनकम टैक्स की स्लैब भी बढ़ाएगी। सच कहूं तो जब जब इनकम टैक्स स्टेटमेंट भरता हूं तो मेरे प्राण निकलते रहे हैं। अजीब सी नेचर हो गई है मेरी भी। खाने को मुंह ताड़का हो जाता है , पर जब देने की बारी आती है तो पता नहीं क्यों प्राण निकलने लगते हैं?


जान गया हूं कि चुनाव जीतने के लिए सरकार कुछ भी कर सकती है। वह किसी को भी दांव पर लगा सकती है।


इसलिए अबके गणतंत्र दिवस पर सरकार से मिलने वाले लालचों को बटोरने के लिए बड़ा सा थैला लिए निकलने वाला ही था सामने से अपने साथ गांव के जैसे किसी ठिठुरते को साथ लिए परसाई आते दिखे। मेरे गणतंत्र को ही देखने आए होंगे? सोचा, स्टेट गेस्ट तो नहीं होंगे कहीं? फिर सोचा, सच बोलने वाले स्टेट गेस्ट तो क्या, अपने घर में भी दुत्कारे जाते रहे हैं।


समाज के लिए नया करने वालों को मैं उनकी बदबू से ही पहचान लेता हूं। ये जो समाज की बेहतरी की मन से बातें करते हैं, असल में उनके तन मन से एक अजीब सी बू आती है मुझे। आए तो आते ही प्रश्न दागा,‘ कहां जा रहे हो इतनी ठिठुरन में? अस्पतालों की हालत सुधर गई है क्या? ’


‘तंत्र के लिये होने वाली घोषणाओं की झड़ी में सिर से पांव भीगने!’ मैंने नाक सुड़कते बिना किसी लाग लपेट, बिना किसी भूमिका के कहा।


‘तो छाता स्वैटर वैगरह तो ले लेते? बीमार-वीमार हो गए तो?’


‘ बंधु! तंत्र कभी बीमार नहीं पड़ता। वह औरों को बीमार करता है। पर आपके पीछे ये ठिठुरता कौन?’


‘मेरे वक्त का गणतंत्र है दोस्त! इसलिए साथ आ गया कि तुम्हारे समय के विकास की झांकियां देखना चाहता है,’ कह उन्होंने उसकी ठंडी हथेलियां रगड़नी शुरू की तो मैंने कहा,‘ अंदर ले आओ इसे। मेरे पास पुराना जैकेट है। अगर बुरा न मानों तो...’


‘नहीं! अब इसे ठिठुरते रहने की आदत हो गई। पर तुम...’


‘क्या करें परसाई जी! अपने हित में बकी जाने वाली घोषणाएं सुनने को कबसे कान फटे जा रहे हैं। महंगाई है कि सिर के ऊपर से बहने लगी है। सरकार जो इस हाथ देती है, उस हाथ इनकम टैक्स में ले लेती है। बिन रिश्वत के सरकारी कर्मचारियों का तो इस महंगाई में जीना दुश्वार हो गया है। हर महीने नया दुकानदार ढूंढना पड़ रहा है। सो बस सोच रहा हूं कि.....’ मैं अपनी ही कहता रहा । जितने को पीछे मुड़कर देखा तो वे दोनों कहीं खो चुके थे, कोहरे में।
अशोक गौतम,