लौटेगा दिल्ली में कांग्रेस का पुराना दौर?


लोकसभा चुनाव से चंद माह पहले दिल्ली कांग्रेस अध्यक्ष पद से अजय माकन का इस्तीफा, उसके बाद 15 वर्षों तक दिल्ली की मुख्यमंत्री रहीं शीला दीक्षित की इस पद पर नियुक्ति को शीला दीक्षित आई है, बदलाव की आंधी लाई है जैसे नारों के साथ देखने की कोशिश हो रही है। साथ ही तीन कार्यकारी अध्यक्षों हारून युसूफ, राजेश लिलोठिया तथा देवेन्द्र यादव की नियुक्ति को पार्टी आलाकमान द्वारा जातीय और धार्मिक समीकरण साधने का प्रयास माना जा रहा है। लोकसभा चुनाव के बाद अगले साल के शुरू में ही विधानसभा चुनाव भी होने हैं, इस लिहाज से प्रदेश में पार्टी संगठन को पुनर्जीवित करने के जो प्रयास किए जा रहे हैं, उनके संकेत स्पष्ट हैं।
अलग-अलग समुदायों से तीन कार्यकारी अध्यक्षों के जरिये पार्टी ने सभी जातियों और वर्गों के मतदाताओं को साधने का दांव खेला है। 2013 के विधानसभा चुनाव में पार्टी के बेहद खराब प्रदर्शन के बाद अरविंदर सिंह लवली को प्रदेशाध्यक्ष बनाया गया था, जिन्होंने पदभार संभालते ही पार्टी की मुख्य कार्यकारिणी सहित सभी कमेटियों को भंग कर दिया था। कुछ समय बाद अजय माकन को प्रदेश कांग्रेस की कमान थमा दी गई किन्तु उनके कार्यकाल में पार्टी बुरी तरह से गुटबाजी की शिकार रही और किसी भी कमेटी का गठन नहीं हो सका। अब शीला दीक्षित की ताजपोशी के मौके पर शक्ति प्रदर्शन कर पार्टी ने एकजुटता का संदेश देने का प्रयास किया है।
पार्टी 2013 के विधानसभा चुनाव में सिर्फ 7 सीटें जीती थी जबकि 2014 के लोकसभा और 2015 के विधानसभा चुनाव में तो उसका दिल्ली से पूरी तरह सूपड़ा ही साफ हो गया था। ऐसे में 80 वर्षीया शीला दीक्षित को करीब-करीब मृतप्रायः हो चुकी प्रदेश कांग्रेस की कमान बहुत सोच-समझकर दी गई है। शीला 1998 से 2013 तक लगातार 15 वर्षों तक दिल्ली की मुख्यमंत्री रहीं और उन डेढ़ दशकों में दिल्ली में कराए गए विकास कार्यों की बदौलत उन्हें एक अलग पहचान भी मिली। 1991, 1996 तथा 1998 के लोकसभा चुनाव और 1993 के विधानसभा व 1997 के नगर निगम चुनाव में कांग्रेस को हार का मुंह देखना पड़ा था किन्तु 1998 में शीला दीक्षित ने जब दिल्ली कांग्रेस की कमान संभाली तो दिल्ली की सत्ता पर पूरे 15 वर्षों तक काबिज रहीं। उनकी छवि एक कुशल प्रशासक तथा पार्टी में सभी को साथ लेकर चलने वाली नेता की रही है।
वह कहती भी हैं कि आलाकमान को लगता है कि मुझे दिल्ली का अनुभव है। इसीलिए उन्होंने इस जिम्मेदारी के लिए मुझे चुना। शीला 1984 से 1989 तक कन्नौज क्षेत्र से सांसद रही। 1998 का लोकसभा चुनाव उन्होंने पूर्वी दिल्ली से लड़ा किन्तु भाजपा से हार गईं। उसी साल विधानसभा चुनाव में उन्होंने ऐसा करिश्मा कर दिखाया कि उसके बाद के 15 वर्षों तक उन्हें कोई दिल्ली की सत्ता से डिगा नहीं सका। उस समय दिल्ली में भाजपा सत्तारूढ़ थी और सुषमा स्वराज मुख्यमंत्री थीं। देश की राजधानी की बदतर कानून व्यवस्था, महंगाई और आसमान छूती प्याज की कीमतों ने भाजपा के खिलाफ ऐसा माहौल पैदा किया कि सत्ता खिसककर कांग्रेस की झोली में चली गई। यह शीला का राजनीतिक कौशल ही कहा जाएगा कि देशभर में जिस समय कांग्रेस के विरूद्ध हवा बही, उस दौर में भी शीला दिल्ली की सत्ता पर अपनी पकड़ बनाए रखने में सफल रहीं।
2013 में कॉमनवैल्थ गेम्स और टैंकर स्कैम जैसे घोटालों में नाम सामने आने के बाद डेढ़ दशकों तक दिल्ली पर एकछत्र राज करती रही कांग्रेस को अरविंद केजरीवाल की आप ने ऐसी पटखनी दी कि उसके बाद वो उस झटके से उबर नहीं सकी और पार्टी की उस हार के बाद सक्रिय राजनीति से शीला दीक्षित की विदाई हो गई। शीला दीक्षित को एक रिटायर्ड राजनेता की भांति 11 मार्च 2014 को केरल का राज्यपाल बनाकर भेज दिया गया। उसी वर्ष मोदी सरकार के सत्तारूढ़ होने के पश्चात् उन्होंने 25 अगस्त को राज्यपाल पद त्यागकर दिल्ली का रुख किया और तभी से वह सक्रिय राजनीति से दूर थीं। हालांकि दो साल पहले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के दौरान कांग्रेस द्वारा उन्हें भावी मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट किया गया किन्तु पार्टी की दाल नहीं गली। भाजपा रिकॉर्ड बहुमत हासिल कर कांग्रेस को पटखनी देने में सफल हुई। उसके बाद से कांग्रेस आलाकमान ने शीला की ओर कभी नहीं देखा और माना जाने लगा था कि शीला का राजनीतिक कैरियर अब पूरी तरह खत्म हो चुका है किन्तु पिछले दो-तीन माह से सुगबुगाहट चल रही थी कि दिल्ली में कांग्रेस की बदतर हालत को देखते हुए दिल्ली की कमान शीला के हवाले की जा सकती है। शीला को ऐसे समय यह जिम्मेदारी सौंपी गई है, जब पार्टी का लोकसभा और विधानसभा में दिल्ली से कोई प्रतिनिधित्व नहीं है और पार्टी संगठन पूरी तरह बेजान हो चुका है।
शीला दीक्षित और उनकी टीम के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती पार्टी में सभी को साथ लेकर चलने और बेजान संगठन में जान फूंकने की है। आम चुनावों से ठीक पहले इतने अल्प समय में वह ऐसा क्या करिश्मा कर पाएंगी, यह तो आने वाला समय ही बताएगा। दिल्ली में निम्न मध्य वर्ग और मध्य वर्ग कांग्रेस का परम्परागत वोटबैंक माना जाता रहा है किन्तु बीते वर्षों में यह आप की ओर शिफ्ट हो चुका है। हालांकि लोकसभा चुनावों के दौरान कांग्रेस के आप के साथ गठबंधन की चर्चाएं जोर पकड़ रही हैं। अभी तक दिल्ली कांग्रेस की कमान संभालते रहे अजय माकन पार्टी के आप के साथ गठबंधन के सदैव खिलाफ रहे हैं। शीला ने भी कहा है कि सिख दंगों को लेकर राजीव गांधी से भारत रत्न वापस लेने का जो प्रस्ताव विधानसभा में आप द्वारा पेश किया गया, उसके बाद उसके साथ गठबंधन का कोई मतलब ही नहीं बनता। फिर भी राजनीति में कब क्या हो जाए, दावे के साथ भविष्यवाणी करना बेहद मुश्किल है। शीला दीक्षित के नेतृत्व में कांग्रेस चुनावों में कुछ कमाल दिखा पाती है तो यह उसके लिए किसी चमत्कार से कम नहीं होगा।


-योगेश कुमार गोयल-