बनें सत्कार और यश के पात्र


हो प्रेम, विशालता, - सहनशीलता और विनम्रता जैसी उत्तम भावनाओं को अपनाकर ऊंची अवस्था को प्राप्त किया, इसलिए वे सत्कार और यश के पात्र बने। आज भी उन्हें श्रद्धा से याद किया जाता है क्योंकि उन्होंने धरती पर बसने वाले तमाम इंसानों को एक ही परिवार का अंग माना और अपने आपको भी उसी परिवार के सदस्य माना। उनके लिए कोई पराया, कोई बेगाना नहीं था। इसलिए उनका रुतबा बुलंद हुआ, उन्होंने ऊँचे शिखरों को छुआ। जो भी ऐसे भक्तजनों का अनुकरण और अनुसरण करता है, उसका जीवन सार्थक बन जाता है और वह औरों के लिए भी । सुख का कारण बन जाता है। उनके आदेशों । को मानकर जब तक इंसान अपने मन को रोशन नहीं करता, तब तक उसका रुतबा । पशुओं से भी बदतर माना जाता है। इसलिए जीवन में बदलाव लाना जरूरी है, क्रांति लाना जरूरी है, अंधकार को उजाले में तबदील करना जरूरी है, संकीर्णता को विशालता में बदलना जरूरी है। संतजन जीवन की सच्चाई को एक आईने के रूप में हमारे सामने रखते आये हैं। उनका मकसद यही है कि इंसान आईना देखकर खुद को संवारे, अपनी बदसूरती को खबसरती में तबदील करे लेकिन इंसान खुबसुरती में तबदील करे लेकिन इंसान की फितरत इस प्रकार की बन गई है कि वह अपना बिगड़ा हुआ रूप देखकर भी संवरने को तैयार नहीं है, इसलिए अपनी आंखें ही बंद कर लेता है लेकिन कोई माने या न माने, जो सच्चाई है, वह तो सच्चाई ही रहती है। जो संतजनों के बताए । रास्ते पर चलता है, उसका मनुष्य रूप में। जन्म लेना सफल हो जाता है, वह सही । मायनों में अपनी इंसान होने की पहचान बना लेता है। फिर वह देवता की पहचान वाला बन जाता है। आज दुनिया में सहनशीलता की कमी नजर आती है। जरा सी बात को लेकर इंसान एक-दूसरे को मारने-काटने पर उतारू हो जाता है। असहनशीलता वाले रवैये के कारण ही वह दानवता और निर्दयता को अपनाकर जुल्म ढाता है। प्रभु भक्त खुद को आध्यात्मिकता में पूरी तरह से रंग लेता है, इसलिए उसकी सहनशक्ति बढ़ जाती है। वह इतना मजबूत हो जाता है कि कट से कट वचन भी सहजता से सह लेता है। अगर हर इंसान सहनशील बनकर एक-दूसरे के काम आने का भाव मन में रखकर धरती पर विचरण करे तो संसार का स्वरूप सुंदर बन जाये। भक्तजनों के हृदय विशाल होते हैं क्योंकि उनके मन का नाता इस विशाल प्रभु परमात्मा के साथ जुड़ा होता है। अगर विशाल परमात्मा का अहसास होता है तो मन की सुंदरता बनी रहती है, मन में शुद्धता बनी रहती है, मन की विशालता बनी रहती है, मन में विनम्रता बनी रहती है, दास भावना बनी रहती है, इसलिए आनंद का अनुभव होता है। कोई छोटा-सा कंकड़ हमारी जूती में आ जाए तो हमें चैन नहीं लेने देता है। जब तक जूती उतारकर उस कंकड़ को बाहर नहीं फेंक देते, तब तक हमें कष्ट होता रहता है।