56 ईंच का सीना और मीडिया से दूरी: यह कैसा अंतर्विरोध?


2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव का बिगुल बज चुका है। पिछले दिनों 2019 से पहले हुए विधानसभा चुनावों के परिणाम जिन्हें लोकसभा 2019 का सेमीफाईनल कहा जा रहा था, आ चुके हैं। इन परिणामों में उत्तर भारत के तीन बड़े राज्य मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ भारतीय जनता पार्टी के हाथों से निकल गए हैं और जिस कांग्रेस मुक्त भारत की कल्पना भाजपाई शीर्ष नेता कर रहे थे उसी कांग्रेस की झोली में इन तीनों राज्यों के परिणाम चले गए हैं। इस परिणाम का नतीजा एक बार फिर यही हुआ है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस हार से सबक लेने के बजाए तथा इसके कारणों पर पूरी ईमानदारी के साथ चिंतन-मंथन करने के बजाए पुनः कांग्रेस मुक्त भारत की रट लगानी और तेज कर दी है। गोया लोकतांत्रिक व्यवस्था में प्रधानमंत्री संभवतः विपक्ष की जरूरत ही महसूस नहीं करते इसीलिए वे केवल कांग्रेस मुक्त भारत की ही बात नहीं करते बल्कि अपने भाषणों में उन्होंने राजस्थान में यहां तक कहा था कि कांग्रेस का एक भी उम्मीदवार राज्य में जीतना नहीं चाहिए। और राजस्थान की जनता ने प्रधानमंत्री की बात को कितनी गंभीरता से लिया, यह देश के सामने है।


दूसरी ओर देश पिछले कई महीनों से राफेल विमान सौदे को लेकर छिड़ी बहस में उलझा हुआ है। परंतु प्रधानमंत्री विपक्ष को न तो उसके सवालों का माकूल जवाब दे पा रहे हैं और न ही इस विषय पर बना गतिरोध समाप्त हो पा रहा है। इस विषय पर राजनैतिक क्षेत्र में कड़वाहट इस स्तर तक पहुंच गई है कि विपक्ष सीधे तौर पर प्रधानमंत्री पर हमलावर होते हुए बार-बार यह कह रहा है कि-चैकीदार चोर है। तो दूसरी ओर प्रधानमंत्री जोकि एक बार फिर 2019 के लोकसभा चुनाव की तैयारी में जुट चुके हैं उन्होंने विपक्ष को चोरों की जमाअत कहना शुरु कर दिया है। पिछले दिनों प्रधानमंत्री ने उड़ीसा में एक रैली को संबोधित करते हुए कहा कि-चोरों की जमाअत चैकीदार को रास्ते से हटाना चाहती है। उन्होंने कांग्रेस पर सेना को कमजोर करने और रक्षा सौदों में घोटाले के आरोप भी सार्वजनिक रूप से लगाए। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह तो साफतौर पर कई बार यह कह चुके हैं कि कांग्रेस अथवा राहुल गांधी को भाजपा सरकार से हिसाब मांगने का कोई अधिकार ही नहीं है। उन्हें पहले अपनी चार पुश्तों व साठ वर्षों का हिसाब देना चाहिए। गेाया देश की जनता पूरी तरह भ्रम की स्थिति में है। वह वास्तव में यह नहीं समझ पा रही कि कांग्रेस व भाजपा में कौन किस पर सही आरोप लगा रहा है और कौन झूठ बोल रहा है।


ऐसे भ्रमपूर्ण राजनैतिक वातावरण में देश की जनता कम से कम इस बात पर तो पूरी नजर जमाए हुए है कि जो नरेंद्र मोदी पत्रकारों के साथ सेल्फी खिंचवाकर उनमें अपनत्व का भाव पैदा करने की कोशिश करते हैं, जो प्रधानमंत्री पूरे आत्मविश्वास के साथ अपने सीने की चैड़ाई 56 ईंच बता चुके हैं,जो चुनिंदा व अपने मनपसंद के किसी अकेले पत्रकार को अपना कथित साक्षात्कार देने पर विश्वास रखते हों,जिन्हें इस बात का गुमान है कि देश वास्तव में मोदी के सत्ता संभालने के बाद ही विकास की राह पर चला है और जिन्हें यह मुगालता है कि उनकी चैकीदारी के बाद ही देश ने आर्थिक व औद्योगिक क्षेत्र में तरक्की करना शुरु की है यहां तक कि उन्हीं के नेतृत्व में देश का सर ऊंचा हुआ है। वह नरेंद्र मोदी देश-विदेश के मुख्यधारा के सभी मीडिया समुहों का संवाददाता स मेलन क्यों नहीं बुलाते? कहने को तो देश को इस समय सबसे अधिक बोलने वाला प्रधानमंत्री मिला है जबकि पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की शांतिपूर्ण व संजीदा छवि को देखकर उन्हें यही आज के सत्ताधारी मौन मोहन सिंह कहकर बुलाने लगे थे। परंतु उस मौनमोहन सिंह ने भी अपने शासनकाल में कम बोलने के बावजूद वर्ष में कम से कम दो संवाददाता स मेलन जरूर बुलाए थे।


देश के लोगों को याद होगा कि इसके पूर्व जब कभी भारतीय प्रधानमंत्री विदेश यात्रा पर जाते थे उस समय उनके साथ भारतीय पत्रकारों का एक दल भी जाया करता था। पत्रकारों का यह दल केवल प्रधानमंत्री के साथ निःशुल्क हवाई यात्रा मात्र किया करता था जबकि विदेश में उस पत्रकार को अपने रहने का खर्च स्वयं उठाना पड़ता था। परंतु नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद इस परंपरा को तोड़ दिया और अब वे अपने साथ पत्रकारों को नहीं बल्कि जरूरत पडने पर चुनिंदा मित्र उद्योगपतियों को ले जाते हैं। प्रधानमंत्री का यह तरीका भी साफतौर पर यही संकेत देता है कि उन्हें पत्रकारों के सवाल के जवाब देने में कोई दिलचस्पी नहीं है। वह मीडिया के सवालों का जवाब देने के बजाए सीधेतौर पर देश की जनता से एकतरफा संवाद करने में अधिक विश्वास रखते हैं। उनके द्वारा शुरु किया गया मन की बात कार्यक्रम इसकी सबसे बड़ी मिसाल है। परंतु इस एकतरफा संवाद से निश्चित रूप से देश की जनता अपने सवालों के जवाब नहीं हासिल कर पाती। फिर आिखर अपने मन की बात जनता तक पहुंचाने वाले प्रधानमंत्री जनता के मन की बात मीडिया के माध्यम से खुले तौर पर क्यों नहीं सुनना चाहते?


इसका उत्तर जानने के लिए किसी पत्रकार के किसी प्रश्र को सुनने की जरूरत ही नहीं बल्कि पिछले दिनों जब प्रधानमंत्री तमिलनाडु व पुड्डुचेरी के कार्यकर्ताओं से वीडियो कांफ्रेसिंग के जरिए भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं से संवाद कर रहे थे उस समय एक भाजपा कार्यकर्ता निर्मल कुमार ने ही प्रधानमंत्री से यह सवाल पूछ लिया कि-मिडल क्लास की राय है कि आपकी सरकार हर तरीके से टैक्स वसूली करने में लगी है। मिडल क्लास को आईटी में लोन मिलने, बैंक लेन-देन में फीस और पैनल्टी में राहत की उम्मीद कर रहे थे, लेकिन कुछ नहीं मिला। आपसे अनुरोध है कि पार्टी की इस जड़ का ध्यान आप वैसे ही रखें जैसे टैक्स का ध्यान रखते हैं। भाजपा कार्यकर्ता के इस प्रश्र का संतोषजनक जवाब देने के बजाए मोदी ने उससे यह कहा कि आप एक कारोबारी हैं इसलिए आपने कारोबार की बात की। इस प्रकार के सवाल-जवाब की स्थिति जब पार्टी के भीतर पैदा हो रही है,जब भाजपा अपने ही सांसद शत्रुध्र सिंन्हा के सवालों के जवाब दे पाने की स्थिति में नहीं है ऐसे में यह सरकार या इस सरकार के मुखिया खुला पत्रकार स मेलन आिखर कैसे बुला सकते हैं?


दरअसल 2002 में हुए गुजरात नरसंहार के बाद से ही नरेंद्र मोदी मीडिया के सवालों के जवाब देने में स्वयं को असहज महसूस करते आ रहे हैं। उन्हें स्वयं इस बात का व्यक्तिगत् एवं कटु अनुभव है कि किस प्रकार करन थापर के तीखे व चुभते सवालों ने उन्हें पानी मांगने व कैमरे के समक्ष इंटरव्यू छोड़कर जाने के लिए मजबूर किया था। उन्हें विजय त्रिवेदी के साथ विमान में दिया गया वह साक्षात्कार भी याद है जबकि वे सवालों का जवाब देने के बजाए विमान की खिड़की से बाहर की तरफ झांकते हुए व सवालों पर खामोश रहते नजर आए थे। हालांकि यदि आज प्रधानमंत्री संवाददाता स मेलन बुलाते हैं तो शायद कोई भी पत्रकार उनसे गुजरात नरसंहार के विषय में बात नहीं करेगा। परंतु वह यह भी जानते हैं कि गत् साढ़े चार वर्षों में देश को तथा यहां के लोकतांत्रिक ढांचे, संवैधानिक मूल्यों तथा सामाजिक ताने-बाने को जो नुकसान पहुंचा है भारतीय मीडिया उस पर सवाल जरूर खड़े करेगा। मीडिया भारतीय सीमाओं की स्थिति पर सवाल पूछ सकता है,राफेल सौदे,देश की अर्थव्यवस्था, स्वच्छता अभियान तथा गंगा सफाई के दावों और अनेकानेक घोटालों पर प्रश्र किए जा सकते हैं। जिससे प्रधानमंत्री रूबरू नहीं होना चाहते। ऐसे में यदि प्रधानमंत्री अपना सीना भी 56 ईंच का बताएं और मीडिया से फासला भी बनाकर रखें तो यह दोनों ही बातें परस्पर अंतर्विरोध पैदा करने वाली हैं।


-तनवीर जाफरी-