सुशासन के दावे और चरमराता लोकतंत्र -तनवीर जाफरी-

भारतीय जनता पार्टी के फायर ब्रांड नेता तथा उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के सुशासन एवं राम राज्य लाने के दावों के मध्य गत् दिनों एक बार फिर देश के 83 प्रमुख पूर्व नौकरशाहों ने योगी को आईना दिखाने की कोशिश की है। इन पूर्व नौकरशाहों में अधिकांशतः ऐसे अधिकारी शामिल हैं जिन्होंने देश-विदेश में उच्च पदों पर रहकर कानून व्यवस्था को नियंत्रित करने तथा संविधान व लोकतंत्र की रक्षा करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। इन अधिकारियों ने प्रदेश में बिगड़ती कानून व्यवस्था तथा योगी सरकार द्वारा इसे नियंत्रित न कर पाने हेतु मुख्यमंत्री से खुले तौर पर त्यागपत्र की मांग की है। यह पत्र उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर में गत् तीन दिसंबर को हुई हिंसा के संदर्भ में विशेष रूप से लिखा गया है। इस घटना में सांप्रदायिकतावादी भीड़ ने एक ईमानदार व कर्मठ पुलिस अधिकारी सुबोध सिंह की गोली मार कर हत्या कर दी थी। दूसरी ओर योगी सरकार द्वारा पुलिस अधिकारी की हत्या को गंभीरता से लेने तथा मुख्य आरोपियों की गिर तारी करने के बजाए इस इस बिंदु पर अधिक ध्यान केंद्रित किया गया कि हिंसा से पहले हुई गौकशी का जि़ मेदार कौन है। इन पूर्व नौकरशाहों ने पहले भी कई अलग-अलग विषयों को लेकर सरकार को खुले पत्र लिखे हैं। परंतु बुलंदशहर में हुई हिंसा तथा एक पुलिस अधिकारी की भीड़ द्वारा हत्या किया जाना अत्यंत दर्दनाक है। इससे राज्य की कानून व्यवस्था पर कई प्रकार के प्रश्रचिन्ह लगते हें। इन अधिकारियों ने अपील की है कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय को इस मामले में संज्ञान लेते हुए बुलंदशहर हिंसा से जुड़े पूरे मामले की जांच करनी चाहिए। देश के इतिहास में आज तक कभी भी इतनी बड़ी सं या में पूर्व नौकरशाहों ने सामूहिक रूप से किसी भी शासन अथवा शासक का विरोध इस पैमाने पर नहीं किया।
अब जरा याद कीजिए इसी वर्ष की शुरुआत में अर्थात् 11 जनवरी 2018 का वह दिन जबकि भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में पहली बार सर्र्वोच्च न्यायालय के चार वरिष्ठ न्यायधीशों सर्वश्री न्यायमूर्ति चेलामेश्वर, न्यायमूर्ति मदन लोकुर, न्यायमूर्ति कुर्रियन जोसेफ तथा न्यायमूर्ति रंजन गोगोई ने संयुक्त रूप से एक संवाददाता सम्मेलन बुलाया तथा तत्कालीन मुख्य न्यायधीश दीपक मिश्रा को दो माह पूर्व लिखे गए अपने पत्र को मीडिया के समक्ष जारी किया। इस पत्र का सार भी यही था कि किस प्रकार उच्चतम न्यायालय की छवि बिगाड़ी जा रही है तथा किस प्रकार मुख्य न्यायधीश मुकद्दमों के बंटवारे में नियमों का पालन नहीं कर रहे हैं। इन न्यायधीशों ने भी संवाददाता सम्मेलन में साफतौर पर यही कहा था कि यदि सर्वोच्च न्यायालय का प्रशासन ठीक तरह से काम नहीं करेगा और यदि इस संस्था को ठीक नहीं किया गया तो लोकतंत्र समाप्त हो जाएगा। भारतीय लोकतंत्र पर मंडराते खतरे की और भी बहुत सारी मिसालें अनेक प्रमुख संस्थाओं में चल रही उठापटक से भी महसूस की जा सकती हैं। सीबीआई जैसी महत्वपूर्ण संस्था भी इन दिनों राजनीति का अखाड़ा बन चुकी है। और अपनी विश्वसनीयता पर स्वयं सवाल खड़े कर रही है।
परंतु इसी तस्वीर का एक पहलू यह भी है कि चाहे हमारे देश के प्रधानमंत्री हों अथवा उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ या फिर भाजपा के दूसरे बड़े जि़ मेदार नेता यह सभी देश में रामराज्य लाने तथा सुशासन के दावे करने से नहीं थक रहे हैं। एक ओर तो नौकरशाहों द्वारा पत्र लिखकर योगी को आईना दिखाया जा रहा है तो दूसरी ओर इसी पत्र के सार्वजनिक होने के अगले ही दिन विधानसभा में अनुपूरक बजट पर चर्चा में हस्तक्षेप करते हुए योगी जी फरमाते हैं कि-जाति व मजहब के नाम पर कई वर्षों से हो रहे भेदभाव तथा लोकतंत्र के साथ किए जा रहे विश्वासघात को हमने ठीक किया है। योगी ने सदन में यह भी बताया कि पिछली सपा व बसपा सरकारों के शासन में प्रदेश में गुंडागर्दी, अराजकता व भ्रष्टाचार का माहौल था परंतु भाजपा सरकार ने सुरक्षा का वातावरण दिया है जिसकी वजह से उत्तर प्रदेश पसंदीदा निवेश का गंतव्य बन गया है। अब जरा सोचिए कि जिस प्रदेश में दिन-दहाड़े शासक दल का समर्थन करने वाली विचारधारा की भीड़ एक युवा पुलिस अधिकारी की हत्या कर दे, जिस प्रदेश में मासूम बच्चियों के साथ दिन-दहाड़े बलात्कार व हत्या की घटनाएं हो रही हों, जहां सामूहिक भीड़ द्वारा निहत्थे लोगों की हत्याएं करने की कई घटनाएं हो चुकी हो,हद तो यह है कि जिस प्रदेश में सत्तारूढ़ दल का विधायक स्वयं बलात्कार व हत्या जैसे मामलों में जेल की सलाखों के पीछे सड़ रहा हो, जिस प्रदेश में सांप्रदायिक व जातिवादी तनाव आए दिन फैलता रहता हो उस प्रदेश का मुखिया जब प्रदेश में जाति व धर्म के नाम पर भेदभाव समाप्त करने के दावे पवित्र सदन में करता हो तो इससे बड़ा मजाक और क्या हो सकता है?
उत्तर प्रदेश विधानसभा में जहां योगी अपने सुशासन के दावे कर रहे थे वहीं दूसरी ओर विधान परिषद में एक विधान पार्षद ने योगी द्वारा हनुमान जी को जातियों में बांटने तथा प्रदेश के उपमुख्यमंत्री दिनेश शर्मा द्वारा सीता जी को टेस्ट ट्यूब बेबी बताए जाने की आलोचना की। इसी प्रकार कुंभ मेला क्षेत्र में गोवर्धनपुरी पीठाधीश्वर जगत गुरू शंकराचार्य स्वामी अधोक्षानंद महाराज ने भी भारतीय जनता पार्टी के शासकों को आईना दिखाते हुए कहा कि-तीन राज्यों में भारतीय जनता पार्टी को मिली हार इस बात का भी प्रमाण है कि धर्म को लेकर झूठ बोलने से शासक ने जनता का विश्वास खो दिया है। उन्होंने कहा कि गंगा की सफाई के नाम पर हजारों करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं परंतु गंगा का जल प्रदूषित है। गोया इस प्रकार की आलोचनाएं राजनैतिक, धार्मिक तथा प्रशासनिक स्तर के लोगों द्वारा लगातार की जा रही हैं। परंतु शासकों द्वारा अपनी पीठ थपथपाने, अपने-आपको लोकतंत्र का सबसे बड़ा रखवाला बताने व राम राज्य का सबसे प्रमुख शासक स्वयं को ही बताने में कोई कोताही नहीं बरती जा रही है। ऐसे नाकाम शासक केवल जुबानी जंग में ही अपने मुंह मियां मिट्ठू नहीं बन रहे बल्कि अभूतपूर्व तरीके से देश की जनता की खून-पसीने की गाढ़ी कमाई अपनी उपलब्धियों के झूठे कसीदे पढने में व इससे संबंधित इश्तिहारात लगवाने में भी खर्च किए जा रहे हैं। शासक दल द्वारा प्रोपेगंडा, अफवाहबाजी, धार्मिक भावनाएं भड़काने, जातीय व क्षेत्रीय वैमनस्य फैलाने, अपने विरोधियों को नीचा दिखाने हेतु निचले स्तर के हथकंडे अपनाने, अपने आलोचकों को जेल भेजने या उन्हें फर्जी मामलों में फंसाने एवं इस प्रकार उनका मनोबल तोडने के प्रयास किए जा रहे हैं। हद तो यह है कि पिछले दिनों राफेल विमान सौदे में सर्वोच्च न्यायालय को कथित रूप से गुमराह करने वाले दस्तावेज तक सरकार द्वारा दाखिल किए गए जिसे लेकर मोदी सरकार एक बार फिर राफेल सौदे में पूरी तरह उलझती दिखाई दे रही है।
निश्चित रूप से यह परिस्थितियां भारतीय लोकतंत्र तथा भारतीय संविधान के लिए किसी बड़े खतरे का संकेत दे रही हैं। पिछले दिनों उत्तर भारत के तीन प्रमुख राज्यों मध्यप्रदेश, राजस्थान व छत्तीसगढ़ के चुनाव नतीजों ने भारतीय लोकतंत्र व संविधान की रक्षा के पक्ष में उम्मीद की एक किरण जगाई है। इस प्रकार के परिणाम इस बात का भी द्योतक हैं कि झूठ, फरेब व मक्कारी पर आधारित राजनीति केवल प्रोपेगंडा के आधार पर अधिक समय तक नहीं चल सकतीं। इन नतीजों से यह भी प्रमाणित हो गया कि शासकों द्वारा भले ही सुशासन के लाख दावे क्यों न किए जा रहे हों परंतु देशवासियों की नजरें चरमराते हुए लोकतंत्र पर भी बखूबी टिकी हुई हैं।