पूर्वजन्मों के कर्मों का हिसाब

धर्म-कर्म


पूर्वजन्मों के शुभ-अशुभ कर्मों का प्रायश्चित है विषयोग। ज्योतिष ग्रंथों के अनुसार किसी भी जातक की जन्मकुंडली में अगर शनि और चंद्रमा एक साथ बैठे हों तो महान शुभ-अशुभ फल देने वाला विषयोग बनता है। विषयोग मानव द्वारा उसके पूर्व के जन्मों में नारी के प्रति किए गए कठोर एवं अशोभनीय आचरण की ओर इशारा करता है। इसे ज्योतिष शास्त्र के सर्वाधिक प्रभावशाली योगों में गिना जाता है, जो जन्मकाल से आरंभ होकर मृत्युर्पयत अपने अशुभ प्रभाव देता है। इस योग के समय जन्म लेने वाला जातक अपने ही मित्रों व संबंधियों द्वारा ठगा जाता है। ऐसे जातक किसी भी व्यक्ति की मदद करते हैं तो उनसे अपयश मिलना तय रहता है।


ज्योतिष के महानतम ग्रंथों-नारद पुराण, जातक भरणम, बृहद्जातक, फलदीपिका आदि में इस योग की अशुभता का वृहद वर्णन मिलता है। कुंडली में शनि एवं चंद्रमा की स्थिति के अनुसार कुछ राहत की उम्मीद की जा सकती है। कुंडली में जिस भाव में भी विषयोग बनता है, प्राणी को उस भाव से ही संबंधित कष्ट मिलते हैं अथवा उस भाव से संबंधित कारकत्व पदार्थों का अभाव रहता है। फलित वाचन के समय ऐसा पाया भी गया है। इसका सूक्ष्म विवेचन अष्टक वर्ग के द्रेष्काण में गहनता से किया जा सकता है।


जातक पूर्व के जन्मों में जिसस्त्री को कष्ट देता है, पुनः वही स्त्री प्रतिशोध लेने के लिए विषयोग वाले प्राणी की मां के रूप में आती है। मां की कुंडली में शुभत्व प्रबल होने पर वह पुत्र की गाढ़ी कमाई का धन सेहत, विलासिता एवं अन्य संतानों पर व्यय कराती है और दुख, दरिद्रता का कारण बनते हुए धन का नाश कराती है तथा दीर्घकाल तक जीवित रहती है। यहां तक कि मृत्यु के समय भी वह अन्य संतानों की देखभाल करने का वचन भी ले लेती है। अगर पुत्र की जन्मकुंडली का शुभत्व प्रबल हो तो जन्म के बाद मां की मृत्यु हो जाती है, तभी इस योग को मातृहंता योग भी कहा जाता है अथवा नवजात की शीघ्र मृत्यु हो जाती है। शनि के चंद्रमा से अधिक अंश या अगली राशि में होने पर जातक अपयश का भागी होता है।
-पंडित जयगोविंद शास्त्री-