साहित्य
-पंकज त्रिवेदी-
उन दिनों में अचानक ही चक्कर आने शुरू हो गए थे। कुछ नहीं फिर भी बहुत कुछ लगता रहा।
शुरुआत में लोग कहते कि तुम्हारे मन का वहम है, मुझे लगता कि ऐसा क्यों कहते हैं सभी? वहम तो मनुष्य के गले से लटका है। हम उसे छोड़ सकते नहीं और उसका भी स्वभाव छूटने वाला नहीं है न! इन सभी के बीच में लगातार उलझा रहा, मन ही मन घुटन महसूस करता रहा, बीमारी के बारे में कुछ भी जानता नहीं फिर भी बीमारी है ऐसा हमेशा महसूस होता रहा। दिन तो गुजरते रहे। मानसिकता ने अस्वस्थता का पहनावा पहनकर मेरे सामने नाच शुरू किया। उनके आनंद में मेरी पीड़ा लगातार मथानी सी घूमती रही, चक्कर काटती रही और अंत में मैं हांफ गया। मुंह झाग झाग हो गया, शरीर में कंपन सा महसूस होता।
जो भी मिलता वो पूछता, चिंता में लगते हो, दुर्बल दिखाई देते हो, कोई तकलीफ़ है क्या?
कुछ एक कहते, पैसों को लेकर बेचैनी मत रखना, हम सब बैठे हैं।
ऐसे मनुष्य सच्चे अर्थ में बैठने के लिए ही जन्म लेते हैं। उनके चेहरे का नूर कभी चमकता नजर नहीं आता। इंसान जब बात करता है तब भी अपने एहसान का बोझ दूसरों के सिर पर रखकर थकान दूर कर लेता है। वह दुः खी मनुष्य कछुए की तरह अंगों को समेटकर स्थितप्रज्ञ बन जाता है। जब उस स्थिति में किसी को देखकर आनंद की अनुभूति होती है तब मनुष्य का शरीर शैतान का घर बन जाता है।
कभी-कभार आते चक्कर अब लगातार आने लगे हैं। धीरे धीरे समयावधि कम होने लगी। कभी-कभार शब्द रोज में परिवर्तित होते देर न लगी। कभी कभी तो वाहन से गिर जाता। तो कभी अपनी डेढ़ साल की बेटी विश्वा को शून्य-मनस्क देखता रहता। ऐसा भी न हो कि यह मेरी बेटी है! क्योंकि याददाश्त हाथताली देकर कुछ एक क्षण के लिए जाती रहती। मुझ में बैठा एक पिता उसके ही अस्तित्व को पहचान न सके इससे ज्यादा करुण घटना कौन सी हो सकती है? अचानक घूमने गई हुई याददाश्त तरोताजा होकर वापस आये और मैं खुली आंख की नींद से जागकर चैकन्ना हो जाऊं।
मित्रों की. स्थानीय डॉक्टरों की सलाह रहती कि न्यूरोलोजिस्ट को बताना चाहिए। मैंने ऐसा सोचा तो सही किन्तु सलाह पर भरोसा रखकर न्यूरोलोजिस्ट को दिखाने का निर्णय न कर सका। चंद दिनों में बहुत से डॉक्टरों को दिखाया। ज्यादातर डॉक्टर कहते कि ब्लडप्रेशर है, कोई कहता दिमाग़ तक लहू नहीं पहुंच पा रहा। एक कश्मीरी डॉक्टर मिले उन्होंने साफ़ शब्दों में कहा दृ इस आदमी को कुछ नहीं है, इस दर्द का मूल कान में हैं। घर के सभी सदस्य सोच में पड़ गए। चक्कर आना, याददाश्त खोना दृजैसे लक्षण दिमाग से सुसंगत ज्यादा लगे। कान के साथ उसका क्या लेना देना? किन्तु दूसरे सभी डॉक्टरों से ये डॉक्टर ज्यादा नजदीक और अनुभव की दृष्टि से विश्वसनीय थे। उन दिनों उन्होंने जब शारीरिक असर के बारे में जाना दृ बाद में निर्णय किया। वास्तविकता यही थी कि बचपन में कान में दर्द रहता था और मवाद (परु) निकलता, कुछ एक समय में अपने आप बंद हो जाता। मानों कि कुछ हुआ ही नहीं। हां, आवेग या आवेश के दौरान मवाद जरूर निकलता।
फिर से कितने सालों के बाद यह पीड़ा शुरू हुई। स्पेश्यालिस्ट डॉक्टर के पास ऑपरेशन करवाया था किन्तु उनसे बहुत ज्यादा फर्क नहीं था। छह महीने में फिर से मवाद दिखाई दिया। आखिर घरेलू चिकित्सा ने काम किया। मानों कुछ हुआ ही न हों ऐसे दर्द गया। कान में न दर्द न मवाद। सभी ने फिर से चैन की सांस ली किन्तु ऑपरेशन विफल हो गया था। इसलिए डॉक्टर पर भरोसा नहीं रहा।
इतने सालों के बाद चक्कर आना शुरू हुए इसलिए वही अविश्वास के साथ डॉक्टर के द्वार खटखटाए। मनुष्य करें भी तो क्या करें? जीने के लिए मनुष्य हमेशा लडता रहा है, भटकता रहा है और अंत में घुटनों के बल गिर पडता है, संघर्ष अनिवार्य है मनुष्य के लिए।
मैं लगातार प्रयत्न करता रहा स्वस्थ होने के लिए, एकाग्र मन से रहने के सभी प्रयास किए जिससे कोई भी डॉक्टर की दवाई लेनी न पड़े। मन्नत मानकर श्रद्धा के सहारे अंधश्रद्धा में फिसल गया तब मेरी जात को हीनता की पराकाष्ठा पर मैंने देखा। बहुत दुःख हुआ किन्तु अब की स्थिति ने मुझे निर्लज्ज बना दिया था। तिनका हाथ लगे तब तक जूझने की तैयारी ने अंत में डूबने का विकल्प ही दिया। आखिर एक बार फिर से कान का ऑपरेशन कराना तय हुआ। ऑपरेशन टेबल पर तरतीब ली उससे पहले मेरी जात के साथ समाधान किया। मेरी मौत को स्वीकार करने के लिए कदम रखने थे। मेरी पत्नी और छोटी बेटी बाहर खड़े थे। दूसरे रिश्तेदारों में भाई-भाभीजी। मैंने जब मेरी पत्नी की आंखों में देखा तब विषादयोग चलता था ऐसा लगा। एक क्षण का भी विश्वास नहीं था ऐसा सभी को लगता था। कान के ऑपरेशन की इतनी गंभीरता मैंने कभी सुनी नहीं थी। आखिर उसने सजल आंखों से मूक सहमति दे दी। छोटी बेटी विश्वा के सिर पर हाथ रखकर सहलाया तब मेरे अंदर बैठा बाप अपने आप को संभाल नहीं सका। आंसूं सररर... गिर पड़े। नर्स के साथ आये वोर्ड बॉय ने हाथ पकड़कर ऑपरेशन थियेटर में खींच लिया।
ऑपरेशन टैबल पर लेटने के बाद कान के अंदरूनी हिस्से में इंजेक्शन दिया गया। कुछ ही क्षणों में उतना हिस्सा सुन्न हो गया। एक के बाद एक औजार बदलने की आवाज, कान के अंदर कुछ टूटने, कुरेदने की आवाज, कहीं होंकदार चाकू से काटने की आवाज और हड्डी के साथ वही घिसते चाकू के खरोंचने की आवाज सुनता, औजार के माध्यम से मानों कि डॉक्टर खुद मेरे कान में उतर जाते। जैसे घर के कोने कोने को झाडू से सफाई कर रही कोई गृहलक्ष्मी साड़ी के पल्लू को खोंसकर लग जाय उसी प्रकार डॉक्टर भी पूरे कान में घूमने लगा। घर में कोई भूगर्भ तहखाना हो ऐसी स्थिति सामने आयी। डॉक्टर जैसे जैसे आगे बढ़े वैसे कान के अंतिम छोर पर आ पहुंचे। वहां पहुंचे तब उस इंजेक्शन के कारण जो सुन्न प्रभाव था वो खत्म हो गया था। एक जोरदार चीख लगाकर मैंने हाथ पटके। फैलाये पैर से एकाध सहकार्यकर को लात मार दी।
डॉक्टर स्थिति की गंभीरता को पहचान गए। तुरंत ही वे रुक गए, उन्होंने सूक्ष्मदर्शक यंत्र से ज्यादा एकाग्रता से देखा। मेरे भाई के साथ धीमी आवाज में कुछ मशविरा किया। मैं बात को सुनकर बोला, डॉक्टर, दूसरा विकल्प नहीं है?
तब उन्होंने मुझे ही कहा; नहीं यार ! अब की स्थिति के बारे में तुम्हें तैयार होना ही पड़ेगा। अगर यहां अधूरा छोड़ दिया तो भविष्य में मुसीबतें बढेंगी। मैं सिर्फ डेढ़-दो मिनट का ही समय लूंगा लेकिन सहना तो आप ही को है न?
बड़े भाई नजदीक आये, मेरा हाथ पकड़कर कहा;
थोड़ी देर हिम्मत रख तो जीवनभर सुख है, सहन कर ले मेरे भाई।
ऐसे समय समझानेवाला भाई अलग व्यक्ति के रूप में नहीं होता किन्तु अपना ही लहू बोलता है। लहू के संबंध ने मुझ में प्राण फूंक दिए और मुझ में बचीखुची ताकत को इकठ्ठा किया। मौत को शिकंजे में लेने मैं तैयार हुआ। मेरे हाथ-पैर मजबूती से टैबल के साथ बांध दिए गए।
ऑपरेशन आगे बढ़ा। अब कान के अंदर के हिस्से को सुन्न करना संभव नहीं था क्योंकि अंदर का हिस्सा छोटे दिमाग से सीधा स्पर्श करता था। मेडिकल साइंस में इसे मेनेंजाईटीस कहते हैं। इस ग्रंथि में ऐसा प्रवाही पदार्थ होता है जिसके कारण मानसिक संतुलन बराबर बना रहता है। कई बार बचपन में चक्कर- चक्कर फिरे होंगे उसे याद करें तो चक्कर फिरने के बाद स्थिर खड़ा नहीं रहा जाता था। जब तक ये तरल (प्रवाही) पदार्थ स्थिर न हो जाय तब तक मनुष्य अपने शरीर-मन का संतुलन रख ही नहीं सकता।
ऑपरेशन का काम अब वहां तक पहुंच गया था कि आगे के हिस्से को एनेस्थेसिया देकर सुन्न किया जाएं तो जोखिम यह था कि मैं किसी भी समय कोमा में चला जाऊं। कोमा में गए मनुष्य के जाग्रत होने की प्रतीक्षा आज भी मेडिकल साइंस कर रहा है, उसका कोई ठोस इलाज नहीं हैं। इसलिए डॉक्टर ने ऐसा जोखिम लेना मुनासिब नहीं समझा। उन्होंने भाई के साथ बात की और मैं चैकन्ना हो गया। हमें जानकारी हो कि शरीर के नाजुक हिस्से पर कोई चाकू से काटकर, कुरेदकर, दवाइयां लगाएगा तब कैसी स्थिति होगी? अनजाने में लगी ब्लेड का घाव भी कहीं भी परेशान करता है जब कि यहां तो सभी बात स्पष्ट थी।
मुझे किसी भी हालत में मन को मजबूत रखकर सहन करना ही था। सोच मात्र से ही पसीना छूट जाता था।
डॉक्टर ने बहुत ही शीघ्रता से कार्य समेटने का प्रयत्न किया। उनकी निष्ठा और मेरी पीड़ा का समन्वय शुरू हो गया। मौत का साक्षत्कार हुआ और उससे पूरे भाव से मैं चिपक गया। दर्द बेचारा लाचार बनकर खड़ा रहा और मैं पीड़ा को सहन कर गया।
ऑपरेशन खत्म हुआ कि तुरंत ही डॉक्टर ने नशे का इंजेक्शन देकर मुझे सुला दिया। संभवतः दूसरे दिन मैं स्वस्थ होकर आंखें खोल रहा था। छोटी बेटी विश्वा ने तोतली जबान में पूछा; पापा, तुम्हें क्या हुआ है?
तब उत्तर में मुझे क्या बोलना है वह समझ में नहीं आया था। पीड़ा के साथ मानों गहरा संबंध हो ऐसा आज भी लगातार महसूस हो रहा है। इसलिए ही शायद साहजिक शब्द आ टपके थे-बेटा, मैं भगवान से मिलने गया था।
स्वस्थ होने के बाद भी अस्वस्थता से बोले ये शब्दों ने मेरी पत्नी की आंख का महासागर उंडेल दिया। एक ओर मेरे स्वस्थ होने की खुशी थी और दूसरी तरफ़ मेरी पीड़ा की अनुभूति उसे खुद को कितनी दुःखी करती होगी उसे मैं तय नहीं कर सका। किन्तु उनके आनंद मिश्रित आंसूं में भी वही खारापन था जो पीड़ा के आंसुओं में होता है। संभवतः उसे आशंका थी कि ऑपरेशन सफल होगा या नहीं?
मैं आज भी उन्हें समझाता हूं, मुझे बहुत अच्छा महसूस होता है मगर सच कहूं? मेरे लहू में अब दर्द घुलमिल गया है। ब्लड कैंसर से थोड़ा सा भी कम नहीं। मैं आज भी लगातार उसी दर्द को अलग अलग स्वरूप में महसूस करता हूं। मगर उस अनुभूति को शब्दस्थ करने की मेरी ताकत नहीं हैं।
हां, मेरी पीड़ा का अब मेरे ही साथ मनमेल हो गया है और हम साथ मिलकर जितने क्षणों को जी सकें उतना जीने को बेक़रार हैं।
पता नहीं हमारी संयुक्त यात्रा का मक़ाम भी कहीं तो होगा न? मैं प्रतीक्षारत हूं। अजीब दास्तां कहते कहते...।