भाजपा और शिवसेना के रिश्ते में आए दिन उतार-चढ़ाव देखने को मिलते ही रहते हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में तो यह उतार-चढ़ाव इस हद तक देखने को मिला कि दोनों दल विधानसभा चुनाव अलग-अलग लड़े। पर परिस्थितियों का तकाजा यह था कि इसके बाद पुनः दोनों को एक होना पड़ा। विचारणीय प्रश्न यह कि आखिर ऐसी कौन-सी परिस्थितियाँ हैं कि आए दिन शिवसेना भाजपा को आँखें दिखाती रहती है, फिर भी अन्ततोगत्वा उसे और कहीं ठौर नहीं मिलता और भाजपा के साथ आने को बाध्य होना पड़ता है।
वस्तुतः बाला साहब ठाकरे के जमाने में महाराष्ट्र में शिवसेना बड़े भाई की भूमिका में हुआ करती थी। यद्यपि यह स्थिति मात्र विधानसभा चुनावों के लिए ही होती थी। लोकसभा चुनावों में भाजपा, शिवसेना की तुलना में ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ती थी। एक बड़ी बात यह भी कि शिवसेना भले ही विधानसभा में ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ती थी, पर तुलनात्मक रूप से विधानसभा में भाजपा उम्मीदवार ज्यादा चुने जाते थे। फिर भी हिदुत्व के नाम पर भाजपा बराबर विधानसभा में शिवसेना की श्रेष्ठता स्वीकार करती रही।
परिस्थिति में गुणात्मक बदलाव तब आया जब 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी की अगुआई में भाजपा को व्यापक सफलता मिली। इसका असर महाराष्ट्र में भी देखने को मिला जहाँ भाजपा सेना युति ने 48 में 40 सीटें जीतीं। जिसमें भाजपा की 22 एवं शिवसेना की 18 सीटें थी। पर यह सभी को पता था कि महाराष्ट्र में भी युति को इतनी बड़ी सफलता नरेन्द्र मोदी के चलते मिली। ऐसी स्थिति में भाजपा, शिवसेना को बड़े भाई की भूमिका में मानने को तैयार नहीं थी। भाजपा का प्रस्ताव था कि दोनों दल 135-135 बराबर सीटों पर चुनाव लड़े और जिस दल को ज्यादा सीटें प्राप्त हो, उसी दल का मुख्यमंत्री बने। शेष 13 सीटें सहयोगी दलों दे दी जाएं, पर शिवसेना इस बात को मानने को तैयार नहीं थी। उसकी जिद यह थी कि शिवसेना को चुनाव लड़ने के लिए ज्यादा सीटें दी जाए और चुनाव बाद मुख्यमंत्री भी उसी का हो। यदि दोनों दल बराबर सीटों पर भी लड़ें तो चुनाव पूर्व ही मुख्यमंत्री शिवसेना का घोषित किया जाए। वस्तुतः शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे स्वतः मुख्यमंत्री बनने की महात्वाकांक्षा पाले हुए थे। पर भाजपा को पता था कि माहौल उसके पक्ष में है, फलतः वह सेना को मुख्यमंत्री पद देने को कतई तैयार नहीं थी।
फलतः दोनों दल अलग-अलग चुनाव लड़े और शिवसेना के 63 की तुलना में भाजपा की करीब दोगुने 123 विधायक चुनकर महाराष्ट्र विधानसभा पहुँचे। पर चूंकि शिवसेना की मजबूरी यह थी कि वह भाजपा के अलावा कांग्रेस और राकापा से हाथ नहीं मिला सकती थी, वरना वह जिस हिन्दुत्व की बात करती थी, उसका आधार ही ढह जाता। इसके अलावा शिवसेना में टूट का खतरा भी उत्पन्न हो गया था। कांग्रेस और राकापा शिवसेना से मिलकर अपने मुस्लिम जनाधार में पलीता नहीं लगाना चाहते थे। फलतः शिवसेना को भाजपा की शर्तों पर ही सरकार में शामिल होना पड़ा। यहाँ तक कि उसे न तो उपमुख्यमंत्री का पद मिला और ना ही सरकार में मनोवांछित विभाग मिले। पर पाँच साल तक महाराष्ट्र में यह सरकार चलती रही। यह बात अलग है कि बीच-बीच में उद्धव ठाकरे और शिवसेना के दूसरे नेता भाजपा और मोदी के विरोध में विष-वमन भी करते रहे।
2019 के होने वाले विधानसभा चुनाव के लिये शिवसेना किसी तरह से ज्यादा सीटों की माँग तो नहीं कर सकती थी, पर वह बराबर इस बात की जिद लिए थी कि भाजपा और शिवसेना दोनों बराबर 135-135 सीटों पर चुनाव लड़े। जबकि इसका कोई तार्किक आधार नहीं था, क्योंकि भाजपा विधायकों की संख्या शिवसेना से दुगुनी थी। इसके अलावा शिवसेना यह भी जिद कर रही थी कि मुख्यमंत्री पद का विकल्प भी खुला रहे। जबकि भाजपा का साफ कहना था कि मुख्यमंत्री की कुर्सी खाली तो है नहीं, अलबत्ता उपमुख्यमंत्री की कुर्सी सेना को दी जा सकती है।
जहाँ तक सीटों के बंटवारे सवाल था, वहाँ भाजपा का कहना था कि जीते विधायकों को टिकट देने के बाद बाकी सीटें आधी-आधी बाँट ली जाएं। यहा भी भाजपा की गठबंधन बनाए रखने की उदारता ही थी वरना अमूमन ऐसी स्थिति में जीते विधायकों के अलावा जो जिस सीट पर नम्बर दो रहता है, उसी पार्टी को उम्मीदवारी दी जाती है। खैर शिवसेना बहुत दिन तड़ाम-झड़ाम दिखाती रही। ऐसा लग रहा था कि दोनों पार्टियाँ विधानसभा चुनाव अलग-अलग लड़ेंगी। निष्पक्ष पर्यवेक्षकों का कहना था कि यदि भाजपा और शिवसेना अलग-अलग लड़े तो जहाँ भाजपा 140 सीटें यानी बहुमत के करीब सीटें जीत सकती है, वहीं शिवसेना के सीटों की संख्या 40 से ज्यादा बढ़ने वाली नहीं।
अच्छा हुआ कि असलियत शिवसेना की समझ में आ गई। असलियत का तो उसे पहले ही पता था, परन्तु वह कहीं न कहीं मोल-भाव की स्थिति में थी। आखिर में 144 सीटों पर भाजपा और 124 सीटों पर शिवसेना चुनाव लड़े इस बात पर सहमति बन गई। कुल मिलाकर अब महाराष्ट्र में दोनों पार्टियों की भूमिका पूरी तरह बदल चुकी है। यानी शिवसेना जहाँ पहले बड़े भाई की भूमिका में होती थी, वहाँ अब भाजपा आ गई है। इस भूमिका में तो 1914 में ही आ गई थी, पर बड़ी बात यह कि शिवसेना ने भी इस बदली हुई भूमिका को स्वीकार कर अपने को जूनियर पार्टनर मान लिया है। बेहतर होगा कि भविष्य में अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिये शिवसेना अपने को, संयमित और नियंत्रित रहना भी सीखे, नहीं तो आने वाले समय में उसके वजूद के लिए खतरा उत्पन्न हो सकता है। वैसे भी शिवसेना चाहे जितने आक्रामक हिंदुत्व की बात करे, अंततः वह एक वंशवादी पार्टी है। इसकी शुरूआत क्षेत्रीय प्रवृत्तियों से ही शुरू हुई थी, जिसके कीटाणु कहीं न कहीं अब भी मौजूद हैं।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)