आज इंसान कभी तन का अभिमान करता है, कभी धन का अभिमान करता है तो कभी मन का अभिमान करता हैलेकिन यह अभिमान तब तक ही है जब तक वह यह माने बैठा है कि मैं ही सब कुछ करने वाला हूँ। मेरे तन की ताकत के कारण, मेरी विद्या के कारण ही मुझे यह सफलताएं प्राप्त हो रही हैं। वह यह भूल जाता है कि इस तन का कोई भरोसा नहीं क्योंकि यह तो नश्वर है और पल-पल इसमें परिवर्तन होते रहते हैं। अभी तो तन काम कर रहा है लेकिन जब कोई बीमारी इस तन को घेर लेती है तो शरीर की यह ताकत पता नहीं कहां चली जाती है और शरीर में दुबर्लता आ जाती है। फिर इंसान पानी का एक गिलास भी अपने आप नहीं उठा सकता। इसी प्रकार यदि धन-दौलत तेरे । पास है, और तू जो चाहे, मन पसंद की वस्तुएं अथवा अपने सुख के साधन खरीद । रहा है लेकिन यदि यही धन अगर लुट जाता है, समाप्त हो जाता है, तो फिर दूसरों के आगे इंसान को अपने हाथ फैलाने पड़ते हैं। मनुष्य के जीवन में कई बार ऐसे भी अवसर आते हैं जब मनुष्य का धन भी कुछ नहीं कर पाता, लाखोंकरोड़ों की दौलत मृत्यु से एक क्षण की भी मोहलत नहीं दिलवा पाती। फिर इस धन-दौलत पर अभिमान का भला क्या। अर्थ? जीवन तभी ऊंचा उठता है जब इंसान अपने अहं को त्याग देता है, अहंकार को छोड़ देता है, जब इंसान इस'मैं' को तज देता है। मैं' को जब तक नहीं तजता, तब तक इंसान गिरावट की ओर ही जाता है। जब अपनी इस 'मैं' को छोड़ देता हैतब ही वास्तव में वह जीवन में उन्नति को प्राप्त करता है। जैसे जब कोई इंसान पहाड़ी पर चढ़ रहा होता है तो उसकी कमर झुकी हुई होती है लेकिन जब पहाड़ी से नीचे उतर रहा होता है तो शरीर को पूरी तरह से अकड़ा कर चलता है, अपने शरीर को जितना ज्यादा सीधा रख सकता है, रखता है इसका भाव यह कि जो झुका हुआ है, वह इस बात की निशानी है कि वह ऊपर यानि उन्नति की ओर अग्रसर हो रहा है, प्रगति कर रहा है और जो अकड़ा हुआ है, उसका सीधा अर्थ यह है कि वह नीचे की ओर अर्थात गिरावट की ओर जा रहा है। अभिमान अज्ञानी को हो या ज्ञानी को, दुःख का ही कारण बनता है। अगर ज्ञानी को अभिमान हो जाए तो उसकी जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है। अभिमान जिसने भी किया, उसको नीचे ही देखना पड़ा।
इस तन का कोई भरोसा नहीं