महापुरषो ने कहा कि श्वांस - छूट जाने के बाद, आत्मा का नाता टूट जाने के बाद, जिस्म को जड़ मान रहे हो तो पहले भी मान लो । इसीलिये आत्मबोध की बातें की गई हैं ताकि एक बोध प्राप्त हो जाये इस सत्य का कि मैं एक जिस्म नहीं हूं, मैं अंश हूं इस परम अस्तित्व परमात्मा का। जिसका कोई रंग नहीं है, कोई नस्ल नहीं है, कोई जाति नहीं है, कोई मजहब नहीं है, ये निरोग, निरूपम, निर्मल रूप है जो काल के अधीन नहीं है, जो काल से ऊपर है, जो स्थानों से बंधा हुआ नहीं है, जिसको अग्नि जलाये नहीं, जिसको वायु उड़ाये नहीं, जो प्रलय के साथ प्रलय नहीं, जो उत्पन्न के साथ उत्पन्न नहीं है, जो सीमित नहीं है बल्कि असीम है, जो रचयिता है, यही परमात्मा है। अक्सर हम इसे कुदरत कह देते हैं जबकि यह कुदरत भी इसी परमात्मा ने ही बनाई है। इसी परमात्मा से आत्मा के जुड़ने को आत्मबोध कहा जाता है। आत्मा का नाता इसी शरीर में रहते हुए परमात्मा से जुड़ना, चेतन सत्ता, रचयिता से जुड़ना ही मानव जीवन का उद्देश्य है। यही परमात्मा निराकार ही मूल आधार है। यही सृष्टि का रचनहार है, कलाकर है और ये कलाकृतियां बनती हैं कलाकार से। इसका परम अस्तित्व निराकार मूल आधार को । जान लिया तो अपने आपको इसी रूप में । जान लिया तो फिर ये भी जान लिया कि जिसका अंश मैं हूँ इसकी जाति नहीं तो । मेरी जाति कहां से आ गई? ये परमात्मा जिसको हम मजहबों मिल्लत मानकर लड़ रहे हैं, मर रहे हैं, काट रहे हैं, जिंदा जला रहे हैं और 9/11 इसका जिक्र करें, हजारों मील दूर न्यूयार्क है। वहां यह घटना घटी तो क्या उसका असर न्यूयार्क तक ही रह गया? उसका । असर सारे संसार के ऊपर हुआ है। संसार क्षणभंगुर है, मिथ्या है। इंसान दुनिया और दुनियादारी को ही सब कुछ मानता है, इसी को ही विशेषता देता है। यह तन भी पांच तत्व का पुतला है जो हमेशा रहने वाला नहीं है, यह भी एक दिन खाक में तब्दील हो जाने वाला है। कणकण में समाया निरंकार ही सत्य हैयह सत्य कल भी था, आज भी है और आगे भी रहेगा। यह जमीन जब न थी, यह आसमान जब न था, चांद-सूरज न थे, यह जहां जब न था, तब भी यह परमात्मा था, यह है और यह रहेगा। निराकार दातार ही हमेशा कायम-दायम रहने वाला सत्य है, बाकी सब मिट जाने वाला है। युगों-युगों से महापुरुषों ने इसी सत्य को अहमियत दी हैब्रह्मज्ञानी संत महापुरुष आत्मा का नाता इस सत्य से जोड़ देते हैं। फिर भ्रम दूर हो जाते हैं और रोम-रोम पुलकित होकर इसके नगमें गाता है। फिर जीवन में ठहराव मिल जाता है, मन से अपने-पराये का भेद मिट जाता है, जीने का सलीका मिलता है और इस प्रकार जीवन सार्थक बन जाता है। फिर ब्रह्मज्ञानी कह उठता है कि हे परमात्मा, यह तन भी तेरा है, यह मन भी तेरा है, यह धन भी तेरा है, यह सारा जग तेरा है, यह जड़-चेतन तेरे ही बदौलत है।